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Showing posts from August, 2023

ऐ दिल

माना तुम व्यस्त हो रहते,  बिन मेरे भी मस्त ही रहते,  मगर हमारी रातें बोझिल,  दिन बेरंगी हो जाती हैं,  तुम मानो या फिर ना मानो,  तुम बिन ऐ दिल,  सारी महफ़िल सूनी  सब अपने,  बेगाने हो जाते हैं।

पूजा के फूल

फूल जो दूर खिले डाली में,  तुम भी, पीड़ा से भरे हुए।  तुम्हें विधि ने दिया सभी कुछ,  तुम सुंदर हो, कोमल हो,  है खुशबू भी उतनी,  जितनी दूजे फूलों में,  फिर भी नहीं, सौभाग्य तुम्हारा,  उन फूलों सा, जो चढ़े हुए,  उनके चरणों में, जिनके निमित्त थे, खिले हुए।  श्री की सुंदर ,सुषमा , वर्धित करने का श्रेय,  नहीं, क्यों तुम्हें मिला?  क्या मिला तुम्हें , ऊंचे तनकर ? क्या मिला तुम्हें,  इस लावण्य परम से ? तेरा जीवन तो व्यर्थ गया , माटी में मिलकर, गलकर , कुछ उन फूलों की सोचो , जो थे नीचे, सचमुच तुमसे , पर आज मुकुट में रचे हुए,  हैं आज हार में गुंथे हुए,  देखो उनका उन्नत ललाट, ऊंचा मस्तक, बनकर पूजा के फूल,  जो हुए धन्य , है उन्हें नमन।

सब एकल रहते हैं

साझे चूल्हे चौके माई,  अब क्यों जल नहीं पाते ? बड़े-बड़े घर भी क्यों,  छोटे पड़ जाते ? क्यों घर के बड़ों की बातें,  खट्टी अमिया जैसी,  कड़वी लगती है ? क्यों किसी की,  कही अनकही सह ना पाते?  ताई, बूआ ,मासी दूर की,  रहने थीं आती, अब मां, बेटी, बहुएं भी  निभा न पातीं। एक बिछाना काफी था , दस बच्चों को । एक ही थाली काफी थी,  रोटी खाने को।  एक रजाई में घुसकर सब,  छोटी टीवी तकते थे । हर हाथ में टीवी खेल रहा , फिर भी लड़ते हैं। क्यों हर रिश्ता बोझ बराबर,  सारे नाते झूठे लगते हैं?  क्या अब हम विकसित देश हो गए?  सब एकल रहते हैं।

वह गुरु है

हर बार अनेक स्वरूपों में,  प्रभु आते हो कई रूपों में, गुरु बनकर । कभी माता, कभी पिता बन,  कभी धर वेश ज्येष्ठ का,  लाते हो पार किनारे, बीच भंवर से,  गुरु बनकर।  गुरु के रूप अनेक हैं , वह पल-पल साखी।   जब भी हो मझधार, वह आता बन माझी।  नई राह और सही राह,  जो सिखला दे, वह गुरु है।  जीवन का आधार नया,  दिखला दे, वह गुरु है।  जो क्षमा करे, दुःख सहकर भी,  उन्नत भविष्य का सर्जक,  वह गुरु है।

सुख-दुख

सुख दुख की रीत निराली रे। यह आनी जानी। तन के लिए हैं फेरे सारे, मन के सब अनजाने रे, तन की पीड़ा,सब सह लेते,  मन की कही न जाती रे,  यह आनी जानी।  लोभ, मोह, माया के बंधन,  सब पर भारी अभिमानी रे,  अहंकार के नाद से मन रे,  सब सुख है लुट जानी रे , यह आनी जानी।

जमाना चला गया

गुड़ियों का, खेल, खिलौनों का,  वो एक जमाना चला गया।  कागज की नाव चलाने का,  वो एक जमाना चला गया।  पानी में चांद सुहाना है,  या आसमान पर सुंदर है,  यह नदी में जाकर  झांक-झांक हंसने का , जमाना चला गया। तारों को गिनने का मौसम, बातों को बिनने का मौसम, बरखा में उछलने का मौसम, काई में फिसलने का मौसम, जाने वह मौसम कहां गया? वह एक जमाना चला गया।

मेघा रानी

मेघा रानी,  बरखा कैसे  लाती हो  बताओ ना?  अंखियों के झूले में,  क्या मोतियों के मेले हैं ?  जो टप-टप इनको गिराती हो,  बताओ ना?  झूमती है डाली और नदी, लहराती है,  हवा बलखाती है तो , तुम इतराओ ना । जो साथ-साथ उनके,  गाती गुनगुनाती हो  तो ,क्या फिर कोई  नया धुन, बनाती हो  बताओ ना ?

सुभग अंचल साथ होता

दुख से न खंडित,  क्लेश से ना टूटता।  निज आह का,  निज में समाकर,  प्रेम पूरित बोलता ।  ना क्रोध के आवेग से,  हित अहित की पहचान खोता।  ना नेह के उत्कर्ष से,  उन्मत्त होकर नाद करता  ना विकल होकर चेतना से,  अवसान का चीत्कार करता।  ना रास रंगों की घटा में,  प्रेम का आलाप करता।   गर मूंदने से नयन हर पल,    रूप वह साकार होता। मांगने से विकल होकर,  सुभग अंचल साथ होता।

मां पूजित हृदय से

प्रेम की आधार गरिमा, हृदय का निश्छल प्रवाह, नेह की सुषमा बनी , वह मां पूजित हृदय से।  जिसके विचारों ने किया शीतल,  पूत के दुखों से हो, जो विकल,  अश्रु से पूरित करे अपने नयन,   वह मां पूजित हृदय से । अंश बन,काया से जिसकी,  एक नई काया बनी,  पालन किया निज रक्त से,  वह मां पूजित हृदय से।  शीतल, सुगंधित,परम पावन,  आंचल के जिसके कोर है,  सारे दुखों की ताप हरता  वस्त्र का वह छोर है।  वह मां पूजित हृदय से।  बढ़कर सभी दुखों को लेती,  परिकल्पना ऐश्वर्य की करती,  सदा निज रक्त हित,  वह मां पूजित हृदय से।  हे प्रभु,  स्नेहिल हृदय उस मां का  अवलंब सबके साथ हो,  वह मां पूजित हृदय से।

मन

 मन की सीमाएं, जो साधे,  वह सच्चा साधक कहलाए।  इस बिगड़े,  हठी बालक को, जो रस्ते पर लाए वह सच्चा साधक कहलाए।  सदा ही चंचल,  नित्य पवन सा, गति न समझी जाए,  जो समझे,  साधन कर ले,  वह जीवन तर जाए।  तन है शिथिल,  यथावत स्थिर,  मन की ठौर न पाए,  चांद, सरोवर, पर्वत, नदिया,  सबसे मिल चली आए,  मन ही परम पूज्य,  है ईश्वर,  गर स्थिर हो जाए।  मन की सीमाएं ,जो साधे,  वह सच्चा साधक कहलाए।

हरि बोल रे -2

क्यों दर-दर को भटक रहे,   नद, सरवर, कूप, तडाग रे,  हरि बोल रे।  तन का मैल धुले,  तो जाना,  मन को क्या धो पाए रे,  हरि बोल रे । क्या छूट जाएंगे पाप?  जो जन्म-जन्म से लादे रे,  हरि बोल रे।  पापों को धोती गंगा,  फिर क्यों धरा? अनगिनत दुष्टों से भारी रे,  हरि बोल रे।

जरा बचके चलना

बड़ी-बड़ी आशाओं के,  गहन सरोवर हैं,  जरा बचके चलना। कभी गिरे तो,  मोती माणिक , कभी पत्थर तीखे हैं , जरा बचके चलना।  हर रिश्ते से बंधी हुई,  कितनी, आशाओं की डोर , जाने कितनी उम्र कटेगी , इसे काटते , जरा बचके चलना। जितने गहरे,  उतर गए , इस जल में,  बाहर आना मुश्किल है,  जरा बचके चलना।

चलना पड़ता है

चुप रहकर , अंतर्मन को सीना पड़ता है।  हां, छुप-छुप  कर  कभी-कभी रोना पड़ता है।  गूंजते हैं, मेरे सपने,  भटकती हैं, मेरी आंखे , पर ,उस भटकन में , आंख मूंद कर,  चलना पड़ता है। भीड़ की तनहाई में,  हंसते ,चलते ,  "चेतन" रहना पड़ता है।  हां, चलना पड़ता है।

मैं

मैं ,मेरा ,मुझ में ,मुझ तक,  बस ,मैं,  मुझसे ही ,  जुड़ी हुई , यह भौतिकवादी दुनिया ।  सब अपनी-अपनी में उलझे,  अपनी बात बनाते, नहीं किसी को पड़ी यहां  उलझन दूजी सुलझा दे , अपने घेरों  में नाच रहे से,  अपनी फटी को झांप रहे से,  एक दूजे से दूर , पास रहा ना कोई यहां,  सब अपनी में चूर।

हरि बोल रे

क्यों ,मेरे सपनों पर पहरा,  क्यों मैं हूं कमजोर रे , हरि बोल रे।  काया की माया ढोती , हर बार खड़ी,  बेबस तकती, मैं किस दर में छुप जाऊं रे।  हरि बोल रे । मैं क्या पहनूं ,मैं कैसे चलूं, मैं क्या बोलूं,क्या ना बोलूं, यह मान मेरा,अपमान मेरा, क्यों जग से कतराऊं  रे , हरि बोल रे । नारी का आभूषण लज्जा,  है ,श्रृंगार व्यवहार , यह सोच, समझ  क्यों आप बुझा दूं , हाथों की मशाल रे।  हरी बोल रे।

थोड़ी फीकी सी

 थोड़ी फीकी सी होती है। थोड़ी बोझिल सी लगती है। हर लम्हें की सच्चाई  बिन साथ तुम्हारे। ऐ यार हमारे।