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सुभग अंचल साथ होता

दुख से न खंडित,

 क्लेश से ना टूटता।

 निज आह का,

 निज में समाकर,

 प्रेम पूरित बोलता ।

 ना क्रोध के आवेग से,

 हित अहित की पहचान खोता।

 ना नेह के उत्कर्ष से,

 उन्मत्त होकर नाद करता

 ना विकल होकर चेतना से,

 अवसान का चीत्कार करता।

 ना रास रंगों की घटा में,

 प्रेम का आलाप करता। 

 गर मूंदने से नयन हर पल,  

 रूप वह साकार होता।

मांगने से विकल होकर,

 सुभग अंचल साथ होता।

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