Skip to main content

जहां चितचोर

चंचल स्मृति से दूर ,

विरह से दूर, मिलन से दूर, 

नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर। 

स्वयं को दे नूतन आयाम, 

स्वर्णिम पंखों की आभा ले, 

स्वच्छंद नया आभास भरे ,

नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर। 

जिसकी बंसी प्रिय से प्रियतम, 

मन उन चरणों को थाम, 

जहां होकर निष्काम, 

इतर जीवन मृत्यु से, 

नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर ।

उन्माद नहीं, अभिलाष नहीं ,

स्वत्व से पूर्ण,स्वयं से पूर्ण, 

आकांक्षा मधुर औ तिक्त नहीं, 

नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर। 

चंचल स्मृति से दूर, 

विरह से दूर ,मिलन से दूर ,

नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।

Comments

Popular posts from this blog

थाम लूं उसे

वह हवा के झोंके की तरह है  हाथ बढ़ाओ तो आता नहीं…  थाम लूं उसे तो वाह  वरना आह…  वह सोऊं तो सोने नहीं देता  जागूं तो हर आहट में है  हवा की गुनगुनाहट में  सरसराहट में है…  मेरी सोच में शामिल है जो  जिसकी छुअन गुदगुदाती है  जिसकी गाढ़ी छुअन तड़पाती है…  ऐसा है वह  जिसे पाने की ललक में  हर काम बेमतलब…  वह 'मच्छर' चोट्टा  कभी हाथ आए तो  मसल दूं उसे… 

कैसी होगी

बहुत छिछलापन है,  वैचारिक नभ में,  जग के…  सबको भाती प्यारी बातें,  सबको प्रिय हैं सुंदर चेहरे,  पीछे की सुंदरता,  परखने की क्षमता,  ओछी हो गई…  नहीं फुर्सत है किसी को,  शब्दों के पीछे झांके,  जो दिखता है जैसा हो,  वह वैसा ही समझा जाता है…  सबको हक है, चिल्लाने का, सबको हक है ,बक जाने का,  जिसकी जितनी क्षमता वैचारिक,  वह उतना ही तो सोचेगा…  पर इस तानेबाने में आखिर , विकसित कैसी होगी  फिर पौध नई…  कैसी होगी उसकी ऊर्जा…  कितना विकसित मस्तक होगा…

सावन

जब बारिश की रातों में  बूंदें छत से टपका करती थीं…  छम-छम गाता था सावन  सब बाग बगीचे खिल जाते थे । तुम बरषा मल्हार थे गाते  वह बावली… घर का कोना-कोना ढंकती थी,  यहां वहां की सुध रखती थी , जाने कितने आंसू पीती थी । रात रात भर नींद चौकन्नी ,  दिन को चैन कहां रहता था … उन पानी की बूंदों से ही  गीला हर एक कोना रहता था,  सीलन की मारी दीवारें  खुलकर सांस कहां लेती थीं, मेघ गरजता देख बावली  अपने छत की जेबें गिनती थी…