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मैं मौन हूं

हे चिर अपरिचित बंधु तुम ,

कैसे कहूं दो बोल परिचित,

स्नेह से आबद्ध कर?


मैं पूछ लूं कैसे तुम्हारे,

क्लेश का कारण सहज? 

कैसे बढ़ाकर हाथ ,

आंसू पोछ दूं तेरे नयन के, 


जो पूछने को कुछ नहीं है ,

नहीं, ऐसा नहीं है ,


भय है उन परिचितों का ,

जो हैं मेरे हर वाक्य का, 

करते अवलोकन, संरक्षण ,


क्या पता गर नहीं भाए, 

उन्हें यह शब्द निर्धन,


और,क्या पता है बंधु, 

क्यों यह आशा करूं मैं,

तुम भी सहज ही ,

लोगे,कहोगे ।


तुम हो अपरिचित, 

नहीं मैं जानती हूं, 

कुछ  प्रवृत्ति तुम्हारी,


अगर तुम ही, 

मुझे कुछ भेद की दृष्टि से ,

विदीर्ण कर दो ,

इसलिए सब सोच, कर, 

सब जानकर मैं मौन हूँ।

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