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Showing posts from October, 2023

आंसू बहा कर

एक सुराख सा लगता है,  क्या कोई बूंद दब गया?  इस रेत की महफिल में , या कोई छोड़ गया फिर,  देख उड़ती धूल , एक आंसू बहा कर।  एक सुराख सा लगता है , क्या अंजुमन में लौ जला , चिंगारी उठी और जल गया,  फिर घर मेरा,  या स्वप्न के सुलगते चीथड़े थे,  जो हृदय को फूंक कर , चुप हैं खड़े । एक सुराख सा लगता है,  क्या कोई आ रहा है,  दूर से छिपकर घने पत्तों में,  या धोखा हुआ,  फिर कोई, आंख का,  दूर तक खाली पड़ा मैदान है । एक सुराख सा लगता है,  क्या कोई बूंद दब गया ? इस रेत की महफिल में,  या कोई छोड़ गया फिर,  देख उड़ती धूल,  एक आंसू बहा कर।

दिवाली का त्यौहार

दिवाली के दिए पटाखे, किसको ना भाते,  किसे ना भाती फुलझड़ियां। किसे सुंदर कपड़ों में सजना,  घर को सजाना प्रिय नहीं लगता,  कौन कहता है नहीं झूमना,  थापों पर, नहीं करना श्रृंगार। नए-नए अलबेले मधुर रस भरे , मधुरों का, नहीं करना सेवन,  नहीं मनाना त्यौहार।  पर आंखों की कोरों में,  दो आंसू भी भर लेना,  उन नैनों की खातिर,  जिनका आंगन है वीराना,  जिनका अपना लुटा है इस साल। हर साल उमंगे मनाते हुए , एक बार यह भी दोहराना,  यह नेमत है हमको प्रभु की , जो हम मना रहे त्यौहार।

प्राणों से प्यारी

हे नयन के प्रीत निष्ठुर, पीड़ देकर उम्र भर का, जा रहे हो नीर भरकर,  क्या करूं तुम पर भरोसा , लौट आओगे अभी , तुम हो छलिया,  फिर से छल जाओगे कभी,  अब भरोसा किस पर करें,  जो प्रभु ही छोड़ दे,  मझधार में नैया लगाकर,  पार क्या करोगे कभी,  प्रीत से निष्ठुर पिया जी,  पीड़ ना जग में हुआ जी,  जो छोड़ के जाते समय भी,  कहता रहे वह है मेरा जी,  यह भरम दुख दे भले ही,  पर विरह की पीड़ हरि जी,  है हमें प्राणों से प्यारी।

मां तुझे बुलाने को

शोर-शराबे ,गाजे-बाजे , एक रव चहूंओर है, क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है ? जगरातों की रातें हैं,  गरबे डांडिया की होर है, क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है?  मार हिलोरें नाच रहा जग , ढोल नगाड़ों का शोर है । क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है?  नौ दिन बीते चली गई तू,  अब कैसे दिन और भोर है,  क्या मां तुझ बिन भी चलता जग?  फिर क्यों केवल नौ दिन शोर है?  क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है?

मैं जल जाऊं

मैं तेरे इस आंगन से,  कुछ धूप चुरा कर ले जाऊं,  जो बात कही अनजानी सी,  वह बात चुरा कर ले जाऊं,  कतरा कतरा सांसें जो,  टकराती है, खो जाती हैं, उन सांसों से मैं कह कर,  कुछ तेरी सांसों को दे जाऊं,  फीके फीके तारों में,  जो फांका फांका लगता है,  मैं तारों से टकराकर,  बंध जाऊं उनमें जाकर,  तुम रौशन कर लेना,  घर अपना,  जो मैं जल जाऊं।

लौट यहां आओगे

स्वच्छंद नहीं उड़ सकोगे प्रिय,   हर बार तुम्हें वापस खींचेंगे,  तुम संग उड़ने वाले पंख नए,  उस सघन डाल की झुरमुट में,  जो नीड़ बनाया है तुमने,  वह तुम्हें लूट लाएगा हर पल,  जो तिनके, जो सूखे पत्ते,  बीने हैं दिन-दिन तुमने,  वह तुम बिन नहीं सजेगा।  सौ बार थपेड़े आंधी के,  जिस कोटर में काटे तुमने,  हरियाली की खोई शाम में,  तुम छोड़ नहीं पाओगे उसको।  उन्नत क्षितिज देख ललचाकर,  पंख उठा हंस कर ,खिलकर,  सबसे छिपकर ,उड़कर,  तुम कब तक मगन रहोगे।  जब आएंगे बादल कारे,  कुछ गरजेंगे ,फिर बरसेंगे , तुम कहीं ठहर जाओगे, लेकिन वापस, याद सताएगी,  अपने अमरावती सघन वृक्ष की,  भरमाओगे कुछ समय सहज , पर जब तक हृदय मोह में है,  तुम फिर फिर लौट यहां आओगे।  स्वच्छंद नहीं उड़ सकोगे प्रिय।

अब भी लिखती हूं

शंका की स्याही में,  कलम डुबा , मैं अब भी लिखती हूं ।   कितने शब्दों का तर्पण कर,  कितने शब्दों को मार,  बचे हुए शब्दों से हार , मैं अब भी लिखती हूं।  क्या होगा लिखकर , क्यों कलम की स्याही,  खत्म कर रही,  यह सोच-सोच थककर भी , मैं अब भी लिखती हूं । कई सुलझे शब्द,  कई उलझे जज्बात,  समय की भेंट चढ़े,  कलम की धार बने ना,  इस उलझन के साथ,  मैं क्यों लिखती हूं?  मैं अब भी लिखती हूं । उम्मीदों के पंख कतर,  आशाओं का घोंट गला,  कुछ सुकून के पल पाने को,  मैं अब भी लिखती हूं।

कृपा है सांई

तेरी करुणा के रस में डूबा, ये मन हुआ विरागी, जप, जोग, तप किए बिन, तेरी कृपा है सांई । कुछ तो न मन को भाया,  कुछ तन ने ना निभाया,  जितनी भी पूजा जग की,  कोई ना रास आया।  लेकिन तेरी कृपा में , कोई न भेद पाया। तेरी करुणा के रस में डूबा  ये मन हुआ विरागी। ऐसा है कौन जग में , नाते सभी जो देखे,  जिनके लिए हैं चलते,  जीवन के सब झमेले। वन्दन बिना मिले जो, एक दिन भी निभा जाए,  ऐसा तो मीत जग में,  तू ही दिखा अकेला।  तेरी करुणा के रस में डूबा  ये मन हुआ विरागी।

चेहरों की किताब

चेहरों की भीड़ में , कोई चेहरा ऐसा नहीं,  जिसकी रेखाएं उन्मुक्त लगे । हर चेहरा ओढ़े बैठा , कुछ गम, थोड़ी ख्वाहिशें,  अपनी-अपनी तन्हाई।  किसी चेहरे ने छुपा रखे , कोई छुपा न सका,  कोई सख्त लगा,  कोई दग्ध लगा । कोई उलझन समेटे,  खामोश खड़ा । कोई चाह कर भी,  बता ना सका।  कोई शंकाओं से,  अभिशप्त लगा।   लाखों जाने अनजाने,  चेहरे देख-देख , एक बात समझ में आई,  यह चेहरों की किताब , क्यों किसी के समझ ना आई।

रोक लो इसे

जड़ता पिशाच सी,  बढ़ रही इस ओर, कहीं ये ग्रस ना ले,  रोक लो इसे। भय से कंपित ये अंग,  बने ना उसका भाजन , निस्तब्ध खड़े यह नेत्र,  जकड़ ना ले इनको,  रोक लो इसे।  है कार्य बहुत कुछ शेष,  समर हुआ है शुरू अभी,  शत्रु से लड़ना है आसान,  स्वयं से बचना है मुश्किल।  रोक लो इसे। इस पिशाच की छाया काली,  इसे दूर करो मुझसे ,  समय के गर्भ में जो कुछ है शेष,  उसे मुक्त रखो इससे । रोक लो इसे । जड़ता पिशाच सी , बढ़ रही इस ओर , कहीं ये ग्रस ना ले, रोक लो इसे।

भिखारी है

फटी झोली लटकाए,  जो बार-बार आता है,  गंदे चीथड़ों से सना, हाथ फैला,  शायद पूरी जन्नत ही मांग रहा,  क्या केवल वही भिखारी  है? रोज-रोज मंदिर के बाहर,  स्टेशन पर या सिग्नल पर,  नित ओढ़े फटे पुराने,  उम्र नहीं पहचानी जाती,  ऐसे लोगों का पूरा एक जो कुनबा है,  क्या केवल वही भिखारी हैं?  मंदिर मस्जिद के भीतर,  सर पटक पटक रखने वाले,  सुंदर कपड़ों और गाड़ी से , सज कर निकले,  जो अंदर मांग के आते हैं , बाहर दान चढ़ाते , क्या वे नहीं भिखारी हैं?  जो दर-दर भटक रहे,  नित नई फरमाइशों की , फेहरिस्त लगाते, झोली नई सजाए,  क्या वे नहीं भिखारी हैं?  महंगे वस्त्रों से सजा हुआ , खुशबू की बयारों वाला,  हर इंसान भिखारी है । अंतर केवल इतना है , वह मांगता है हमसे,  हम मांग रहे रब से।

मर रहे हैं

देखो तो सभ्यता का , कैसा ये नाच नंगा,  हर ओर है तबाही , हर ओर बेबसी है।  इंसानियत की रक्षक,  सौदागरों की टोली , है किसकी नेकनीयत , जब लग रही हो बोली । हर ओर बदहवासी,  हर शख्स गमनशी है,   ताश के पत्तों से,  सपने बिखर रहे हैं।  यह कैसी जिंदगी है , यह कैसा मेरा तेरा , जब हम ही ना रहे तो,  क्या धर्म का बखेड़ा । कोई मुझे बता दे,  एक बात तो समझा दे , ईश्वर वो कौन जिसने , आपस में है लड़वाया।  वह किसका मसीहा है , जो कहता मार डालो,  जो कहता खत्म कर दो,  जो कहता जला डालो ।   लाशों की ढेर पर जो,  सियासतों के मेले,  चलते रहे सदियों से,  वह अब भी चल रहे हैं।  हम कल भी मर रहे थे।  हम अब भी मर रहे हैं।

फिर आज

स्वयं से इतर , जो अभिव्यक्ति है, दुख की व्यथा की,  वह तुम्हें सहृदय समर्पित।  तुम करो उनका निवारण। तुम सुनो उनकी कथा,  उनकी व्यथा।  मैं नहीं अनंत तुमसे,  हर घड़ी यह करूंगी,  तुच्छ निवेदन जागृति का।  तुम सुप्त कब हो,  लेकिन स्वयं के संबंध में,  मैं नहीं मौन रह पाऊंगी।  हे प्रभु मैं नहीं ईश्वर, किसी के मौन का , किसी विलाप का,  चिर स्मरण तुम्हें है।  तो जग की फैली,  चादर वेदना की,  उसमें कुछ फूल प्रेम के,  कुछ क्षण विस्मृति के,  फिर आज डाल दो

मन जोड़ कहाँ पाते हैं

चंद लिफाफे साबुत से, ✉️ कुछ अंतर्देशी मुड़ी तुड़ी,  एक पोस्ट कार्ड के साथ, आज फिर हाथ लगी तो,  जागे सोए जज्बात।  होंठो पर अनचाहे एक,  हल्की रेखा मंडराई,  की आँखों ने मन से बात,  जब एक लिफाफा भरने में,  दो हफ्ते लग जाते थे । जब हर अक्षर को कढने में,  घंटों की मेहनत लगती थी।  हर बार नया कुछ लिखने को,  जब उल्लसित मुखरित,  मन होता था।  जब अंदर की सजावट , क्या कहने , बाहर भी सजाया करते थे।  💌 वह बात गई ,वो भाव गए,  अब रोज करो घंटों बातें,  पर जो अक्षर लिख जाते थे,  वो बोल कहाँ पाते हैं। हम मिल तो लिए नैनों से , मन जोड़ कहाँ पाते हैं।

बच्चे थे तो अच्छे थे

हम बच्चे थे तो अच्छे थे।  छोटी सी दुनिया होती थी।  नन्हे से सपने होते थे । छोटी हथेली,आधे टुकड़े से,  भर जाती थी । तकरार बड़े थे ,प्यार भरे।  जिनसे जुड़ते थे ,सच्चे थे।  हम बच्चे थे तो अच्छे थे।   नन्हा मन, झूठे सपने से , सज  जाता था । सारी दुनिया आंखों के,  आगे होती थी।  कोई अपना दूर नहीं लगता था।  जो भी कहते थे , बोल हमारे सच्चे थे।  हम बच्चे थे तो अच्छे थे।

माँ थी

गीले गोबर से लीपे,  आंगन में जैसे,  वो बूढी सी अम्मा है।  तकती अभी भी,  वो गठरी बनी माँ।   जो दिन भर है बैठी,  निहारे पड़ी है , अपनी नन्ही फुलवारी।  वह शायद बुलाती थी, कुछ तो बताती थी,  पर सुनने का उससे,  समय था कहां।  वह बूढी सी माँ,  एक कोने पड़ी । अब सूना पड़ा,  हर कोना यहां । ना मिलता कहीं,  है वो कोना कहां।   वह हँसती कभी थी,  तो रोती कभी थी , ना हँसना नया था,  ना आंसू नए थे।  वो बूढी सी अम्मा थी। हां वो भी तो मां थी।

बचपन का मौसम

वो आंगन की मिट्टी, जो मिलती नहीं अब।  वो चूल्हे की खुशबू , जो आती नहीं अब। जब आमों के मौसम में, चढते थे हिलमिल, टाटों के टीले ,डाली के झूले,  और बागों के मेले में,  कच्चे,रसीले,  खट्टी आंखों का मौसम , जो आते नहीं अब,  वो सवालों के मौसम।  वो पानी की लहरों में , करना छपाछप, वो पूजा की थाली ले,  अबूझी सी पूजा , अजाने से फेरे,  टूटे-फूटे से अक्षर,  मंत्रों के पढ़कर,  खुशी से दोहरी,  होती जाती थी काया । तब मांगने में,  शरम थी ना आती , न देने में कुछ भी,  थी दुखती कलाई।   शर्म कायदों से परे था,  वो मौसम, वो बचपन का मौसम,  वो बचपन का मौसम। 

पथ के साथी

पथ के साथी , पथ में मिलना हर बार । कभी नहीं पग तन्हा हो,  ऐसी राह बनाना । जहां दूर से भूला भटका,  एक राही मिल जाए । धूप जहां हो खिली हुई , छाँव जहां पर जलती हो,  उन राहों पर भी हो खड़ा, कोई मुसाफिर , ऐसी राह बनाना । पथ के साथी,  पथ में मिलना हर बार।  दूर कोई झाड़ी हो या,  कंकड़िली पगडंडी, रेत भरी दरिया हो या,  किनारा नदी का , उन राहों पर भी,  कोई साथी मिल जाए,  कोई पथिक दिख जाए,  ऐसी राह बनाना । पथ के साथी,  पथ में मिलना हर बार।  कभी नहीं पग तन्हा हो , ऐसी राह बनाना।

ना ललकार मुझको

सच है संवेदना सही है , पर संवेदना के बोझ से , ना लाद मुझको।  मैं नहीं रो सकती निरुदेश्य, निर्विकल्प,अनुत्तरित  प्रश्नों पर बार-बार । हर बार मेरे आंसुओं की धार,  ना ललकार मुझको। गम की स्याही में डुबोकर,  रंग नया लाऊँ कैसे , जो रूठ गया, छूट गया , आसमाँ से टूट गया , उसे फिर पलकों में,  कसके छुपाऊं कैसे? हर बार मेरे आंसुओं की धार , ना ललकार मुझको । घुट घुट कर घुटन ने , जब दामन था छोड़ दिया,  फिर थामा था आँसुओं ने,  तिनके सा मुझको।  पर नहीं,अब नहीं , हर बार मेरे आंसुओं की धार,  ना ललकार मुझको।

ओ प्रियतम

तुम मेरी उलझन की,  गांठे सुलझा देना, ओ प्रियतम,  मैं तेरे सारे सपने, अपनी आंखों में भर लूंगी।  तुम मेरी भूलों को देखकर , अनदेखा कर देना,  ओ प्रियतम , मैं तेरी सारी भूलें, अपने आंचल से ढंक दूंगी।  तुम मेरे प्रेम की भाषा,  मेरे नैनों में पढ़ लेना,  ओ प्रियतम , मैं तुझ पर अपनी सारी , संचित प्रेमनिधि लुटा दूंगी।  तुम मेरी राहों के कंटक,  नैनों में बस दिखला देना,  ओ प्रियतम,  मैं तेरी राहों पर प्रियतम, अपने नैन बिछा दूंगी।

एक प्यारा तोहफा

आज व्यस्तता इतनी उलझी,  कितनी अबूझ हो गई , हम कहते हैं समय नहीं है, समय सोच में पड़ गई। दिन के इतने घंटे देकर,  साथ में रात का तोहफा , फिर भी समय निकालूँ कैसे,  यह समस्या रह गई। यह तकनीक का विषधर डसकर,  सबको पंगु बना बैठा। थोड़ा मन बहलाऊं सोचा , चुपके से यह घुस पैठा। निर्विकल्प का एक विकल्प बन,  यह हाथों की शोभा, सारा समय निगलने वाला, यह एक यंत्र अनोखा।  समय-समय दोहराने वालों, एक ही तान सुनाने वालों, खुद को धोखा कब तक दोगे? इस साथी को कब समझोगे? समय प्रबंधन इस संग कर लो, जीने की रफ्तार बढा लो। दुनिया से जोड़े रखने का,  यह एक प्यारा तोहफा।