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अब भी लिखती हूं

शंका की स्याही में, 

कलम डुबा ,

मैं अब भी लिखती हूं ।

 

कितने शब्दों का तर्पण कर, 

कितने शब्दों को मार, 

बचे हुए शब्दों से हार ,

मैं अब भी लिखती हूं। 


क्या होगा लिखकर ,

क्यों कलम की स्याही, 

खत्म कर रही, 

यह सोच-सोच थककर भी ,

मैं अब भी लिखती हूं ।


कई सुलझे शब्द, 

कई उलझे जज्बात, 

समय की भेंट चढ़े, 

कलम की धार बने ना, 

इस उलझन के साथ, 

मैं क्यों लिखती हूं? 

मैं अब भी लिखती हूं ।


उम्मीदों के पंख कतर, 

आशाओं का घोंट गला, 

कुछ सुकून के पल पाने को, 

मैं अब भी लिखती हूं।

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