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मन जोड़ कहाँ पाते हैं

चंद लिफाफे साबुत से, ✉️

कुछ अंतर्देशी मुड़ी तुड़ी, 

एक पोस्ट कार्ड के साथ,

आज फिर हाथ लगी तो, 

जागे सोए जज्बात। 


होंठो पर अनचाहे एक, 

हल्की रेखा मंडराई, 

की आँखों ने मन से बात, 


जब एक लिफाफा भरने में, 

दो हफ्ते लग जाते थे ।

जब हर अक्षर को कढने में, 

घंटों की मेहनत लगती थी। 


हर बार नया कुछ लिखने को, 

जब उल्लसित मुखरित, 

मन होता था। 

जब अंदर की सजावट ,

क्या कहने ,

बाहर भी सजाया करते थे।  💌



वह बात गई ,वो भाव गए, 

अब रोज करो घंटों बातें, 

पर जो अक्षर लिख जाते थे, 

वो बोल कहाँ पाते हैं।

हम मिल तो लिए नैनों से ,

मन जोड़ कहाँ पाते हैं।

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