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बचपन का मौसम

वो आंगन की मिट्टी,
जो मिलती नहीं अब। 
वो चूल्हे की खुशबू ,
जो आती नहीं अब।


जब आमों के मौसम में,
चढते थे हिलमिल,
टाटों के टीले ,डाली के झूले, 
और बागों के मेले में, 
कच्चे,रसीले, 
खट्टी आंखों का मौसम ,
जो आते नहीं अब, 
वो सवालों के मौसम। 


वो पानी की लहरों में ,
करना छपाछप,
वो पूजा की थाली ले, 
अबूझी सी पूजा ,
अजाने से फेरे, 
टूटे-फूटे से अक्षर, 
मंत्रों के पढ़कर, 
खुशी से दोहरी, 
होती जाती थी काया ।


तब मांगने में, 
शरम थी ना आती ,
न देने में कुछ भी, 
थी दुखती कलाई।
 
शर्म कायदों से परे था, 
वो मौसम,
वो बचपन का मौसम, 
वो बचपन का मौसम। 

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