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माँ थी

गीले गोबर से लीपे, 
आंगन में जैसे, 
वो बूढी सी अम्मा है। 
तकती अभी भी, 
वो गठरी बनी माँ।
 
जो दिन भर है बैठी, 
निहारे पड़ी है ,
अपनी नन्ही फुलवारी। 

वह शायद बुलाती थी,

कुछ तो बताती थी, 

पर सुनने का उससे, 
समय था कहां। 


वह बूढी सी माँ, 
एक कोने पड़ी ।
अब सूना पड़ा, 
हर कोना यहां ।
ना मिलता कहीं, 
है वो कोना कहां।

 
वह हँसती कभी थी, 
तो रोती कभी थी ,
ना हँसना नया था, 
ना आंसू नए थे। 
वो बूढी सी अम्मा थी।
हां वो भी तो मां थी।

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