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सोच बड़ी खुदगर्ज

एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है, 

रोकती है जो, हर प्यारी राह।

 

जिसकी आकृति विकृत, 

जो जलाकर,तोड़ती परोक्ष को, 

बनाकर कई नए चेहरे निरंतर ,

जो पाषाण है, जड़ है,

नहीं संवेदना जिसकी धरा पर, 

स्थिर है जो ,ऐसी कुटिल काया, 

जो बहती सदा निर्मूल।


एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है, 

रोकती है जो, हर प्यारी राह। 


हिलोरें लेती आती, सुंदर ललना, 

दिखाती स्वप्न नए,विचारों में अक्सर, 

काया बना जाती निर्मल, 

फिर दूर खड़ा हंसता, 

"निष्ठुर", करता आता बतकही, 

दिखाता फिर जीवन दर्पण, 

जहां डूब जाती आशा ,

फिर फिर उठती, फिर फिर गिरती, 

अंत का करती विकल विचार।


एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है, 

रोकती है जो, हर प्यारी राह।

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