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Showing posts from December, 2023

नया साल

क्या नूतन ,क्या नवीन हुआ?  दिन-रैन वही, सुख-चैन वही,  दुख-शोक वही ,कार्य-व्यवहार वही,  फिर आडंबर के ढोलों की  थापों पर नाच नाच,  नया साल बोलो कैसे आरंभ हुआ ?  कुछ भी तो बदला नहीं,  कुछ भी तो सुलझा नहीं,  कोई विवेक जागृत ना हुई , कोई कुत्सा, कुंठा कोई,  ना त्याग सके!  तो, क्या नूतन, क्या नवीन हुआ?  नया साल बोलो कैसे आरंभ हुआ?  जगमग रौशन तन है , मन का अंधेरा ज्यों का त्यों,  लौ एक भी जो जागृत न हुई,  प्रण एक भी जो साकार किया ना,  किसी के घर आंगन को,  रौशन ना किया,  ना आंसू पोंछे,  ना थामे हाथ, अनाथों के,  तो, क्या नूतन ,क्या नवीन हुआ?  नया साल बोलो कैसे आरंभ हुआ?  वक्त हाथ से फिसल रहा,  तू अपनी राग अलाप रहा,  अपनी अपनी डफली के रागों में,  सारा जग ही है व्यस्त खड़ा , फिर कुछ अंकों के बदलने से,  तारीखों के हेर फेर से , नया साल बोलो कैसे आरंभ हुआ?

फासले

फासले, जो बदल देते हैं जिंदगी,  फासले, जो नहीं चाहते हम,  फासले, जिन्हें हर रिश्ते के साथ,  जुड़ना होता है,  हर भाव के साथ,  हर स्वप्न के साथ,  जो मिलते हैं सहज,  वे हैं फासले। उम्मीद के पुल पर,  कुछ कदम साथ चलते,  जल के प्लावन से , टूट बिखर जो पुल गया,  तो बचे जो बीच,  वे थे फासले। बिछड़ कर शून्य से,  जब जीवन आरंभ हुआ,  तबसे अब तक,  न जाने, क्या छूटा,  कितना छूटा, क्यों छूटा  है पता नहीं, कब तक छूटे,  पर यह सत्य है, आश्वस्त हूँ मैं,  एक दिन जब वापस,  शून्य में जाऊँगी मैं , तब नहीं होगा,  कोई बिछोह,  तब नहीं होंगे 'फासले' ।

सहेजना है मुझे

कली के पत्र खुल रहे हैं,  क्या पकड़ रखूं ? क्या रोक पाऊंगी मैं?  नहीं रोक सकती!  वात का स्पर्श भी,  बेचैन करता है,  छू कर गया है वह अभी,  न हिलाया, न झकझोड़ा , फिर क्यों?  क्यों मेरी संवेदनाएं  कली के साथ हैं!  सहम गया है मन मेरा,  मेरी कली,  मेरे आलोड़ में , कब तक रहेगी ? क्यों कर रहेगी?  खिलेगी , निखरेगी , महकेगी ,दमकेगी,  इसलिए, शायद मैं शशंकित हूं!   सहेजना जो है मुझे।

स्मृति

स्मृति में रोज कुछ नया,  जुड़ता है सहज,  कभी यह होता नहीं खाली, ना कभी एकांत,  अतीत से दूर,  स्वभाव से बोझिल,  क्यों हुआ यह स्वर,  सबके नयन में तस्वीर कभी,  एक से बनते नहीं,  स्मरण तुम्हें भी है,  है मुझे भी,  फिर क्यों कुछ अंतर है,  किसी की कटु,  दूसरे की मधुर है।

एक दिन

अभाव रहता नहीं शाश्वत सदा  स्थान उसका ले ही लेता है  विकल्प एक दिन।  कोई कितना भी प्रिये हो,  कितना भी आत्मीय  किंतु उसको छोड़ , जाना पड़ता ही है एक दिन।  जिंदगी की राह में,  अकेला मुसाफिर सा बना कर,  हर साथी साथ छुड़ा ही लेता है , एक न एक दिन। नए पंछियों के आगमन से,  नीरव पथ भी,  गूंजता हरा-भरा वन , बन ही जाता है एक दिन।  आयु कितना भी जिए कोई,  आज है तो कल नहीं,  कोई गया है आज,  साथी उसका कल तो जाएगा ही,  नए चेहरे, नए सवेरे बनकर,  हर तन्हाई भर ही देते हैं एक दिन।  अभाव रहता नहीं शाश्वत सदा, स्थान उसका ले ही लेता है  विकल्प एक दिन।

एक युवा बेरोजगार

एक युवा बेरोजगार , घर से निकलना नहीं चाहता है।  असफलताओं ने ऐसे,  दामन है पकड़ा,  सफल दोस्तों से,  मिलना नहीं चाहता है । एक युवा बेरोजगार,  घर से निकलना नहीं चाहता है।  वह तकलीफ में है , सवालों के जवाब,  देना नहीं चाहता है । वह घर के किसी कोने में , किताबों की बेड़ियों में,  खुद को जकड़ बैठा है,  आजाद होना नहीं चाहता है।  एक युवा बेरोजगार,  घर से निकलना नहीं चाहता है।  ज्ञान के दरवाजे चहूंदिश खोलकर,  अपने रास्ते बंद किए बैठा है,  सफलता की राह तक रहा , वह अकेला बाहर निकलना नहीं चाहता है।   एक युवा बेरोजगार,  घर से निकलना नहीं चाहता है। अगर कोई पूछ बैठा , क्या करते हो आजकल  और हो कहां?  वह जवाबों में , घर का पता बताना नहीं चाहता है।  आंखों के सपने ,आंसू से बहते , उनको दिखाना नहीं चाहता है।  एक युवा बेरोजगार,  घर से निकलना नहीं चाहता है।

टीनएज

मन मतवाला करने वाला,  यह दोष उम्र का है सारा । यह ऐसी उम्र है प्यारे!  हर हवा जो छू कर जाए,  वह बिल्कुल अपनी लगती है। हर हंसी जो कानों तक पहुंचे,  वह पास बुलाती लगती है।  नई बहारों से मिलने जब , पंख पसारे उड़ता है मन,  सतरंगे फूलों से मिलकर , चाहे अनचाहे ,खुशबू की रव में , बह लेता है मन।  उस पल के आकर्षण में जो,  प्रीत सुहानी लगती है,  सब दुनिया से बेगानी , एक रीत निराली लगती है । जो उस क्षण साथ नहीं देता,  वह शख्स ही दुश्मन लगता है । जो राह दिखाता है दूजी , वह प्रेम का बैरी दिखता है।  यह टीनएज है प्यारे ! जब सावन की हरियाली , हर पल छाई ही रहती है। जब माघ, जेठ की गलन ,तपन  बारिश सी बुझाए देती है।

अव्यक्त

अव्यक्त तुम व्यक्त होकर,  और सम्मुख आ रहे हो,  फिर कभी उल्लास में,  जब मूंद कर आंखें सभी,  बाह्य अंतर की,  भूल कर तुमको परम,  मैं बहूं आनंद में तब,  हे प्रिये, तुम वेदना के अंश,  कुछ दे डालना,  मेरी हथेली पर,  जिन्हें लगा मस्तक से,  फिर पास तुम्हारे आ जाऊं,  कुछ ही वेदन प्रिय,  अधिक नहीं,  वह मात्रा अधिक,  ना दूर करे फिर तुमसे,  इतना देना, जिससे तुमसे,  कुछ भेद रहे ना,  मैं निराकार हो जाऊं,  तुम मेरे नैनों में साकार  प्रिये हो जाना।

तौर तरीका

एक छोटी सी बच्ची है , अनजानी कायदों से,  दुनिया जहां के,  नहीं जानती , अपना कौन, कौन पराया,  रोज बुलाया करती है , देकर आवाज नए,  कभी मां कहती है , कभी कहती है आजा,  आजा आजा की टेर लगाती,  चेहरे नए बनाती, प्यारे प्यारे,  पता नहीं, वह क्यों बुलाती है?  उसे मालूम नहीं है अब तक,  कितना जरूरी होता है , अजनबियों से अजनबी बने रहना,  बिना कुछ सोचे यहां,  भारी पड़ता है कुछ कहना,  यह इस दुनिया की रीत है,  जो निभानी पड़ती है सबको , अपनी दीवारें, सरहदें अपनी,  पहचाननी पड़ती है सबको , बदलना पड़ता है , अपना तौर तरीका , साथ चलने को जमाने के।

काला प्यारा

उल्लास से स्निग्ध हो, निखर आई कुछ चपलता,  पुष्प के मुख पर सहज,  झूम कर उस क्षण सखी,  इस डाल से, उस डाल को,  वह जा लगी,  जब कर परिक्रमा,  वह चिर परिचित भ्रमर , आ फिर लगा , उसके कपोलों से,  पुनः मिलन की आस लगा,  जब उड़ा रसिक वह,  नहीं रोक पाई प्यारी,  अपना तन, वह डोल गई , कलुष रहित, सुंदर मुख,  वह कुछ और निखर आया,  उसमें जब पड़ी स्मित रेखा,  वह इठलाकर,  अपनी सखियों से,  यह प्रीत जताने मचल उठी,  कुछ देर मचल, कर इधर-उधर,  फिर बैठी अपनी नियत जगह,  करने को, पुनः श्रृंगार नवल,  वह काला प्यारा,  जब फिर आए,  तो फिर आए।

समझा करो

बहुत मुश्किल होता है,  बांटना अपनों को,  समझा करो ! एक उम्र का साथ लंबा छोड़कर,  अजनबी बनना,  बहुत मुश्किल होता है , समझा करो !  समझा करो,  साझा करना जिस रिश्ते को,   किसी और से गंवारा न था,  वह जब गैरों से साझा करे,  जज्बात अपने, कितना मुश्किल होगा,  बहुत प्यारे रिश्ते हैं , नाजुक से ,अनमोल बड़े , पलकों की छांव में पलते,  पुतली जैसे,  वे जब हाथों से हौले से,  लगते हैं फिसलने , बहुत मुश्किल होता है , समझा करो ! बचपन से गिनने बैठ गई तो,  ऐसा लगता है,  कितने रिश्ते पीछे छूटे,  कुछ तो ऐसे शीशे से टूटे,  जिनके टुकड़े भी चुभते हैं , हर मोड़ खड़ा ,दम तोड़ पड़ा,  कोई ना कोई अपना निकला,  ऐसे अपनों से हाथ छुड़ाना , बहुत मुश्किल होता है,  समझा करो !

ओ! भ्रमर

ओ ! भ्रमर ,  अब इस गली,  गुंजन न कर  सो रहे हैं,  अब कली के प्राण सारे,  शाम घिरने को खड़ी है,  दूर देखो रात काली,  ओ !भ्रमर,  नहीं अब कोई,  स्पंदन है खाली,  तू जिसे मदमत्त करता था कभी,  छेड़ता था, खेलता था , और परिक्रमा करता था कभी , वह कली अब छोड़ डाली,  हो गई तेरी पराई,  खो गई है, सो पड़ी है,  दूर देखो किस क्यारी,  ओ! भ्रमर,  अब नहीं उसके प्राणों में  तुम बसे हो , ना उसे अब होश है,  खुद का ही प्यारे,  छोड़ दो अब सोच कर यह,  सोते हुओं को नींद प्यारी।

ऐ बादल

मुझे भिगो दो ऐ बादल, या उमड़ घुमड़ मत गाओ, निस्तब्ध खड़ा अविचल जड़ सा, यह जो सन्मुख है वृक्ष खड़ा, उसे हिला दो मुझे हवा दो,  मुझे भिगो दो ऐ बादल,  या उमड़ घुमड़ मत गाओ, इस गर्जन से ही त्रस्त खग जो दुबक गए कोटर में, दो आजादी उनको या फिर ले लो बदला उनकी उन्नत उड़ने की आशा का। मुझे भिगो दो ऐ बादल या उमड़ घुमड़ मत गाओ, व्यथा से भरे हुए इस हिय को तुमसे ही है आश 'जो तुम' इनकी व्यथा में कारण हो तो करो निवारण। मुझे भिगो दो ऐ बादल या उमड़ घुमड़ मत गाओ, चेतना से विकल हुआ क्यों मन चाहता तुमसे ये आलम्बन मूढ़ता मन की न गूढ़ता बन जाए मुझे रोक लो या फिर स्वच्छंद हवा दे दो मुझे भिगो दो ऐ बादल या उमड़ घुमड़ मत गाओ।

अनसुलझे पल

अनसुलझे पल, जीवन के कुछ, जिनमें थमते आदर्श, रूकता चरित्र, आईना नहीं है जो अनसुलझे पल। जिनमें जीने का अफसोस, सदा जीवन करता, जो नहीं बता पाते, अपना इतिहास, अपना भविष्य, केवल होते वर्तमान, ऐसे कुछ अनसुलझे पल। जो हर जीवन के साथ जुड़े, हैं परदे में ढके हुए, कुछ मन के परदे में, और कुछ रस्मों के परदे में, ऐसे अनसुलझे पल। जिन्हें भूलना मुश्किल, सोचना गलत, और जिनमें जीना कुछ और नहीं, होता बस एक भूल, ऐसे कुछ अनसुलझे पल।