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काला प्यारा

उल्लास से स्निग्ध हो,

निखर आई कुछ चपलता, 

पुष्प के मुख पर सहज, 

झूम कर उस क्षण सखी, 

इस डाल से, उस डाल को, 

वह जा लगी, 

जब कर परिक्रमा, 

वह चिर परिचित भ्रमर ,

आ फिर लगा ,

उसके कपोलों से, 

पुनः मिलन की आस लगा, 

जब उड़ा रसिक वह, 

नहीं रोक पाई प्यारी, 

अपना तन, वह डोल गई ,

कलुष रहित, सुंदर मुख, 

वह कुछ और निखर आया, 

उसमें जब पड़ी स्मित रेखा, 

वह इठलाकर, 

अपनी सखियों से, 

यह प्रीत जताने मचल उठी, 

कुछ देर मचल, कर इधर-उधर, 

फिर बैठी अपनी नियत जगह, 

करने को, पुनः श्रृंगार नवल, 

वह काला प्यारा, 

जब फिर आए, 

तो फिर आए।

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