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Showing posts from January, 2024

अमरूद का पेड़

अपना कहने की सरहद से दूर,  एक पेड़ है अमरूद का । हर मौसम में फल लदा,  हर बच्चे की पहुंच तक,  हर चिड़िया का प्यारा , उस पेड़ पर कोई बंदिशें नहीं हैं,  उसे जिधर मन,  वह उधर बढ़ सकता है।  उसे जितना जी चाहे,  उतना फल दे सकता है।  हां, वह और पेड़ों से ज्यादा,  पत्थर की चोट ,  डंडों की मार भी सहता है , पर फिर भी वह बेखौफ है , उसे डर नहीं काटे जाने का,  उसे डर नहीं छांटे जाने का,  इसलिए शायद वह फलता बहुत है,  मीठा बहुत है, घना बहुत है , सबको बराबर फल, छाया, घर देता,  खुश बहुत है।

सीख लिया

सीख लिया सावन ने , रहना बिन झूले के । सीख लिया आंगन ने , रहना बिन बिटिया के । सीख लिया हाथों ने,  रहना बिन कंगना के। सीख ही लेगी वह भी पगली,  रहना बिन सजना के।  सीख लिया लल्ला ने,  सोना बिन लोरी के । सीख लिया पैरों ने , चलना बिन पायल के । सीख लिया दुल्हन ने,  सजना बिन घुंघट के।  सीख ही लेगी वह भी पगली, चलना बिन साथी के।

कभी कभी

जज्बात भरी आंधी बनकर मेरे नैनों में , आया करो ना श्याम  कभी-कभी । बरसा करो ना नैनों से  प्रेम की गंगा बनकर भी , कभी-कभी।  कभी तो उतार कर  केंचुल अपने,  यह मन मेरा हल्का हो ले,  आया करो ना श्याम । बहुत दिन बीते  जो तुम आए ना  या फिर , मैंने नहीं बुलाया तुमको  तुम मेरे स्पंदन की गांठों में ही तो  रमते रहे , पर मैंने छुआ नहीं । अपनी ही गांठों को  खोल नहीं पाती हूं मैं,  मैं, में ही उलझी हूं , तुम संग बोल नहीं पाती हूं,  तुम ही  झकझोर कर या  हौले से ही,  जगाया करो ना श्याम,  कभी-कभी । आया करो ना श्याम  कभी-कभी।

अघोषित युद्ध

अभिजात का अवगुंठन ले  आकंठ डूबे विष में , नग्नता विचार की  आडंबर का घिनहा सा सत्व , लाद कर किलोल करता  रूप प्यारा,  मिलता बहुत है आजकल । विषवमन करते केंचुल लादे  ये सर्प सुनहले , कैसे इतना विष रखते हैं ? कैसे कर लेते हैं ऐसा,  अघोषित युद्ध ? बिना शस्त्रों के,  कितनी तीक्ष्ण जिह्वा है , कैसे रख पाते हैं भीतर ? क्या काट नहीं जाती इनको  यह स्वयं भीतर ही भीतर...!

संगी मेरा

उल्लास के अधिभार से,  बोझिल हुआ तन मन भला क्यों कर सुने कोई व्यथा , हर ओर ही जब रव भरा , अंतर खड़ा दुर्बल पड़ा , वह जो कभी था सगा  वह मूक प्रिय संगी मेरा  है  राह तकता , है उसे यह आश अब भी  लौट कर आएगा मांझी , वापस यहां इस राह में  जो छोड़कर उन्माद में है,  आज जो अधिभार में है , वह हल्का हुआ जब कभी  आएगा फिर थक कर यहीं ।

मैं अमीर हूं

मैं अमीर हूं । इस हाड़ कपाती ठंड में , एक घर है मेरे पास , तन ढकने को रजाई,  सोने को बिस्तर है । मैं अमीर हूं । पेट भर खाने को खाना है।  तन पर पूरे कपड़े हैं । पैरों में है जुराबें जुड़ी हुई । सर पर मफलर है । मैं अमीर हूं।

एक औरत

हर रोज़ निकलती है घर से , जब एक औरत , करने को बाहर काम , घड़ी की सुइयों सी चलती है  उसकी सुबहो शाम । जाना उसका घर से , घर का जाना होता है।  आना वापस जैसे , घर वापस आया हो।  वह घर की मिट्टी है जो , वह मां है, लोरी है वो । वह पत्नी घरवाली है , वह लज्जा रौनक घर की,  वह घर ही तो है । वह जब घर से जाती है,  और जब वापस आती है,  उस दरमियां घर,  घर नहीं रहता।  घर की वह चारदिवारी है,  खाना है ,कपड़ा है,  मावा है ,मिश्री है,  चूल्हा है, बर्तन है,  चादर है, सिलवट है,  घर का हर एक कोना, हर जिम्मेदारी है औरत। जो साथ निभाती है,  बाहर के भी काम,  उतनी ही लगन से।   हर रोज़ निकलती है घर से,  जब एक औरत,  करने को बाहर काम,  घड़ी की सुइयों सी चलती है,  उसकी सुबहो शाम।

स्फुट हृदय राग के क्षण

स्फुट हृदय राग के क्षण..…  दीप्ति से आच्छन्न , आह्लाद से उज्जवल , नयन में तेज,  हृदय में स्वर जहां,  जिस क्षण दर्द का आभास नहीं,  क्षुधा नहीं, प्यास नहीं,  आलोक रहती चिंतन की,  प्रमुख में रहता जहां विचार,  उनकी उत्कृष्टता, उनका प्रवाह , स्फुट हृदय राग के क्षण....।  प्रवाह वह तीव्र हो , हो मंद अथवा,  उसमें डूबने को विकल,  होता पल में वह जीव,  जिसने जिया हो,  स्फुट हृदय राग के क्षण....। जहां समय की सीमा नहीं,  अनवरत अक्षुण्ण है  साम्राज्य जिसका,  जिसमें उतरकर  बुभुक्षा तीव्र होती जाती हर पल,  स्फुट हृदय राग के क्षण .... दीप्ति से आच्छन्न , आह्लाद से उज्जवल,  नयन में तेज,  हृदय में स्वर जहां....।

युवा

पुरजोर बोलता है , दिल खोल बोलता है,  ये आज का युवा है , हर राज खोलता है।  खामोश रहकर , आघात नहीं सहता,  ये करता है मन की,  आरोप झेलता है , पर फिर भी बोलता है,  ये आज का युवा है,  हर राज खोलता है । उद्दंड है,मतंग है,  अपनी ही धुन में दंग है , आंखों में आग रखके , नई राह टटोलता है । ये आज का युवा है,  हर राज खोलता है।

परम प्रिय

हे नयन के स्वप्न, निष्ठुर आत्मीय से , जो संग रहते हृदय के , पर विलग जो स्वयं से । भाव पर आरूढ़ हो,  केवल नहीं है चलती जिंदगी , वह निरस पाथेय सी , निष्ठुर परम ।  ये स्वप्न प्यारे, जब तक बंद थे आंखों में,  नहीं था द्वंद कोई निशा में , अब निराशा प्रिय गेह से  विछोह का , और सालता पृष्ठ  आत्मीय का। हे नयन के स्वप्न,  निष्ठुर आत्मीय से , जो संग रहते हृदय के , पर विलग जो स्वयं से । जो परम प्रिय , है व्यथा जो , जिनसे मिलन भी दुखद ,  यूं की विरह भी संग है । जिनको नयन में बंद कर , छलकने का भय नहीं , वे स्वप्न ही हैं  परम प्रिय।

हे राम

हे राम रघुकुल नाथ जी,  हुआ खत्म अब वनवास जी।  अब आइए विराजिये निज भवन  शोभा धाम जी।  मन भाव के पुष्पों से,  भरकर हथेली राम जी,  नयनों की ज्योति दीप बाड़े  तेरी उतारें आरती । तुम तो जगत के नाथ हो , करते भगत हितकार्य जी।  अब भगत के हाथों से, प्रभु ! होने दो यह शुभ कार्य जी।  हे राम रघुकुल नाथ जी  हुआ खत्म अब वनवास जी।  कब से भगत तेरे खड़े थे  राह तकते धाम में , अब के गए जो गेह से , बीते कई सौ साल जी । अब आइए विराजिये निज भवन  शोभा धाम जी।  हम भाग्यशाली नाथ जो,  देखें नयन से आपको , वापस खड़े निज भवन जी,  कितने तपी योगी गए,  इस आस में तज देह जी। अब धरा, आकाश, चहूंदिश  गा रहे वंदन तेरा,  हैं करोड़ों आत्माएं , मृत जीवित करबद्ध जी।  हे राम रघुकुल नाथ जी , हुआ खत्म अब वनवास जी।  अब आइए विराजिये निज भवन  शोभा धाम जी।

धन्य हो तुम

निर्धन की लक्ष्मी धन्य हो तुम।  एक सिक्का बन,  हाथों से छिटक,  जो डोल रही धरती पर,  कुछ चावल बन  चूल्हे पर बर्तन में,  जो नाच रही हो,  निर्धन की लक्ष्मी धन्य हो तुम।  एक बेटी बन  किस्मत को जो , खेल रही बन ठन कर , दो हाथ बना,  मजबूरी की किस्मत,  उनसे मजदूरी  खींच रही हो,  निर्धन की लक्ष्मी धन्य हो तुम।  दो नयन दिए अनमोल , जिसमें सागर है,  जिसका नहीं कोई मोल,  आंसू का सागर सींच रही,  नित नए-नए पट खोल,  निर्धन की लक्ष्मी धन्य हो तुम।

मनुज सा

निरपराध अपराधों की  फेहरिस्त में , बेवजह फटकारों की  श्रृंखला है,  मेरे घर आंगन की मेड़ पर  दाना चुगने वाले , नन्हे कपोतों को,  जालिम निरंकुश कह गया  जो मन मेरा , फिर अपराधों की फेहरिस्त में , एक अपराध और जुड़ गया  है मेरा,  ग़र जीने के लिए , स्वकर्म करना भी अपराध है , तो अपराधी है हर शख्स , जो करता निज स्वारथ हित,  कार्य रात दिन,  वह कैसे हुआ अपराधी भला,  जो अपने भरण पोषण हित,  अपने परों को फैला आकाश में,  नित नए ठिकाने,  नित नए दानों की ठौर  तलाश रहा  और पाकर एक ठौर नवीन,  संगी साथी जुटा कर खा रहा,  वह कभी खाता तो नहीं अकेला , मनुज सा !