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मनुज सा

निरपराध अपराधों की 

फेहरिस्त में ,

बेवजह फटकारों की 

श्रृंखला है, 

मेरे घर आंगन की मेड़ पर 

दाना चुगने वाले ,

नन्हे कपोतों को, 

जालिम निरंकुश कह गया 

जो मन मेरा ,

फिर अपराधों की फेहरिस्त में ,

एक अपराध और जुड़ गया 

है मेरा, 

ग़र जीने के लिए ,

स्वकर्म करना भी अपराध है ,

तो अपराधी है हर शख्स ,

जो करता निज स्वारथ हित, 

कार्य रात दिन, 

वह कैसे हुआ अपराधी भला, 

जो अपने भरण पोषण हित, 

अपने परों को फैला आकाश में, 

नित नए ठिकाने, 

नित नए दानों की ठौर 

तलाश रहा 

और पाकर एक ठौर नवीन, 

संगी साथी जुटा कर खा रहा, 

वह कभी खाता तो नहीं अकेला ,

मनुज सा !

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