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परम प्रिय

हे नयन के स्वप्न,

निष्ठुर आत्मीय से ,

जो संग रहते हृदय के ,

पर विलग जो स्वयं से ।


भाव पर आरूढ़ हो, 

केवल नहीं है चलती जिंदगी ,

वह निरस पाथेय सी ,

निष्ठुर परम । 


ये स्वप्न प्यारे,

जब तक बंद थे आंखों में, 

नहीं था द्वंद कोई निशा में ,

अब निराशा प्रिय गेह से 

विछोह का ,

और सालता पृष्ठ 

आत्मीय का।


हे नयन के स्वप्न, 

निष्ठुर आत्मीय से ,

जो संग रहते हृदय के ,

पर विलग जो स्वयं से ।


जो परम प्रिय ,

है व्यथा जो ,

जिनसे मिलन भी दुखद ,

 यूं की विरह भी संग है ।

जिनको नयन में बंद कर ,

छलकने का भय नहीं ,

वे स्वप्न ही हैं 

परम प्रिय।

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