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एक औरत

हर रोज़ निकलती है घर से ,

जब एक औरत ,

करने को बाहर काम ,

घड़ी की सुइयों सी चलती है 

उसकी सुबहो शाम ।


जाना उसका घर से ,

घर का जाना होता है। 

आना वापस जैसे ,

घर वापस आया हो। 


वह घर की मिट्टी है जो ,

वह मां है, लोरी है वो ।

वह पत्नी घरवाली है ,

वह लज्जा रौनक घर की, 

वह घर ही तो है ।


वह जब घर से जाती है, 

और जब वापस आती है, 

उस दरमियां घर, 

घर नहीं रहता। 


घर की वह चारदिवारी है, 

खाना है ,कपड़ा है, 

मावा है ,मिश्री है, 

चूल्हा है, बर्तन है, 

चादर है, सिलवट है, 

घर का हर एक कोना,

हर जिम्मेदारी है औरत।

जो साथ निभाती है, 

बाहर के भी काम, 

उतनी ही लगन से।

 

हर रोज़ निकलती है घर से, 

जब एक औरत, 

करने को बाहर काम, 

घड़ी की सुइयों सी चलती है, 

उसकी सुबहो शाम।

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