Skip to main content

अघोषित युद्ध

अभिजात का अवगुंठन ले 

आकंठ डूबे विष में ,

नग्नता विचार की 

आडंबर का घिनहा सा सत्व ,

लाद कर किलोल करता 

रूप प्यारा, 

मिलता बहुत है आजकल ।

विषवमन करते केंचुल लादे 

ये सर्प सुनहले ,

कैसे इतना विष रखते हैं ?

कैसे कर लेते हैं ऐसा, 

अघोषित युद्ध ?

बिना शस्त्रों के, 

कितनी तीक्ष्ण जिह्वा है ,

कैसे रख पाते हैं भीतर ?

क्या काट नहीं जाती इनको 

यह स्वयं भीतर ही भीतर...!

Comments

Popular posts from this blog

थाम लूं उसे

वह हवा के झोंके की तरह है  हाथ बढ़ाओ तो आता नहीं…  थाम लूं उसे तो वाह  वरना आह…  वह सोऊं तो सोने नहीं देता  जागूं तो हर आहट में है  हवा की गुनगुनाहट में  सरसराहट में है…  मेरी सोच में शामिल है जो  जिसकी छुअन गुदगुदाती है  जिसकी गाढ़ी छुअन तड़पाती है…  ऐसा है वह  जिसे पाने की ललक में  हर काम बेमतलब…  वह 'मच्छर' चोट्टा  कभी हाथ आए तो  मसल दूं उसे… 

कैसी होगी

बहुत छिछलापन है,  वैचारिक नभ में,  जग के…  सबको भाती प्यारी बातें,  सबको प्रिय हैं सुंदर चेहरे,  पीछे की सुंदरता,  परखने की क्षमता,  ओछी हो गई…  नहीं फुर्सत है किसी को,  शब्दों के पीछे झांके,  जो दिखता है जैसा हो,  वह वैसा ही समझा जाता है…  सबको हक है, चिल्लाने का, सबको हक है ,बक जाने का,  जिसकी जितनी क्षमता वैचारिक,  वह उतना ही तो सोचेगा…  पर इस तानेबाने में आखिर , विकसित कैसी होगी  फिर पौध नई…  कैसी होगी उसकी ऊर्जा…  कितना विकसित मस्तक होगा…

सावन

जब बारिश की रातों में  बूंदें छत से टपका करती थीं…  छम-छम गाता था सावन  सब बाग बगीचे खिल जाते थे । तुम बरषा मल्हार थे गाते  वह बावली… घर का कोना-कोना ढंकती थी,  यहां वहां की सुध रखती थी , जाने कितने आंसू पीती थी । रात रात भर नींद चौकन्नी ,  दिन को चैन कहां रहता था … उन पानी की बूंदों से ही  गीला हर एक कोना रहता था,  सीलन की मारी दीवारें  खुलकर सांस कहां लेती थीं, मेघ गरजता देख बावली  अपने छत की जेबें गिनती थी…