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Showing posts from February, 2024

यूं ही

चेतन के अविरल प्रवाह,  कुछ देर जरा थम जा,  अभी बिता लेने दो,  कुछ समय अचेतन,  जब मैं जागी हूं  पर नहीं जागृत रहूं , जब तन में व्यथा हो,  लेकिन हृदय आनंद में हो,  कुछ समय ऐसा , जिसमें नहीं आवाज दे,  कहीं से कोई मुझे,  कुछ मैं कहूं ना,  सांसों की झंकार  जहां भी ना हो,  मलयानिल बहकर आए,  शीतल स्पर्श करे मुझको,  पर मेरे मन में,  ना हो हलचल,  बहने दो कुछ क्षण यूं ही....!

मनमानी

तुम जिसका आलंबन लेकर,  छूने को विकल हो रही,  गगन लतिके,   देखो तो पहले,  उसकी डालों में,  क्षमता कितनी है?  नहीं है सामर्थ्य उसमें,  उतना हे प्रिये!  तुम कुछ दिन ठहरो,  देखो क्षण भर,  सोचो रुक कर , या तुम झूम रही हो,  उन्मत्त होकर  बढ़ने की लालसा में,  जिसकी जड़ें खुद जमी नहीं,  वह कैसे सहेगा भार तेरा,  कहीं गिर कर खुद भी , उसे भी ना गिरा देना,  पर यदि तुम्हारा विश्वास है,  इतना सघन,  तो कर लो वही,  जो तुम चाहो,  कर लो अपनी मनमानी ।

री मानिनी

री मानिनी,  तू कमलिनी,  यह जानकर अपूर्ण है,  प्रिय चंद्र आज,  तू खिली ही नहीं  संपूर्ण हो,  नभ से धरा को देखता,  वह छुधित सरवर देखकर,  कुछ नीर फिर , कह कैसे बहाए ना?  री चंचला , तेरे अधर को छू गए,  जो बूंद दो,  वे धरोहर हैं प्रिय के , जो खोलना चाहते हैं,  नयन तेरे , तू देख तो पल भर,  नभ में वह अपूर्ण भी, अमा को काट लाया है  नई आभा धरा पर...।

भोर भरी

पात भरे चाक पर जो बैठी है  अली कली वात छुई,  कह तो कौन  डाल पर  जाएगी नीर भरी,  पात सभी  छूट कर , जब पतझड़ में  रूठ कर , चूमेंगे धरा सखी  खिल कर भी  रात भर  शीत तपी , किसलय पर छुटेगी  भोर भरी।

बहता है जीवन

बहुत दूर आ कर भी जीवन,  दो डग ना बढ़ पाए हम,  जिस जगह हुई थी राह शुरू,  हैं खड़े आज भी उसी डगर,  यह भूल भुलैया जीवन की,  भटकाती अगनित राहों में , टकराकर, गिरकर,  फिर उठकर भी,  वह सीमा अंतिम दिखती दूर,  क्षण क्षण दूर,  बहुत दूर उज्जवल,  थका कर अपना मानस नभ भी  नहीं पहुंच पाए उस तक,  वह आयाम लाकर वापस,  दे जाता है पग पहले , जहां से आरंभ हुई यह यात्रा,  संकुचित मानस , संकुचित दृष्टि,  कभी भी लेकर,  आगे नहीं जाएगी मुझको,  फिर भी क्यों बार-बार,  राह वही, पतवार वही,  धरकर बहता है जीवन।