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बहता है जीवन

बहुत दूर आ कर भी जीवन, 

दो डग ना बढ़ पाए हम, 

जिस जगह हुई थी राह शुरू, 

हैं खड़े आज भी उसी डगर, 

यह भूल भुलैया जीवन की, 

भटकाती अगनित राहों में ,

टकराकर, गिरकर, 

फिर उठकर भी, 

वह सीमा अंतिम दिखती दूर, 

क्षण क्षण दूर, 

बहुत दूर उज्जवल, 

थका कर अपना मानस नभ भी 

नहीं पहुंच पाए उस तक, 

वह आयाम लाकर वापस, 

दे जाता है पग पहले ,

जहां से आरंभ हुई यह यात्रा, 

संकुचित मानस ,

संकुचित दृष्टि, 

कभी भी लेकर, 

आगे नहीं जाएगी मुझको, 

फिर भी क्यों बार-बार, 

राह वही, पतवार वही, 

धरकर बहता है जीवन।

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