Skip to main content

मनमानी

तुम जिसका आलंबन लेकर, 

छूने को विकल हो रही, 

गगन लतिके,  

देखो तो पहले, 

उसकी डालों में, 

क्षमता कितनी है? 

नहीं है सामर्थ्य उसमें, 

उतना हे प्रिये! 

तुम कुछ दिन ठहरो, 

देखो क्षण भर, 

सोचो रुक कर ,

या तुम झूम रही हो, 

उन्मत्त होकर 

बढ़ने की लालसा में, 

जिसकी जड़ें खुद जमी नहीं, 

वह कैसे सहेगा भार तेरा, 

कहीं गिर कर खुद भी ,

उसे भी ना गिरा देना, 

पर यदि तुम्हारा विश्वास है, 

इतना सघन, 

तो कर लो वही, 

जो तुम चाहो, 

कर लो अपनी मनमानी ।

Comments

Popular posts from this blog

थाम लूं उसे

वह हवा के झोंके की तरह है  हाथ बढ़ाओ तो आता नहीं…  थाम लूं उसे तो वाह  वरना आह…  वह सोऊं तो सोने नहीं देता  जागूं तो हर आहट में है  हवा की गुनगुनाहट में  सरसराहट में है…  मेरी सोच में शामिल है जो  जिसकी छुअन गुदगुदाती है  जिसकी गाढ़ी छुअन तड़पाती है…  ऐसा है वह  जिसे पाने की ललक में  हर काम बेमतलब…  वह 'मच्छर' चोट्टा  कभी हाथ आए तो  मसल दूं उसे… 

कैसी होगी

बहुत छिछलापन है,  वैचारिक नभ में,  जग के…  सबको भाती प्यारी बातें,  सबको प्रिय हैं सुंदर चेहरे,  पीछे की सुंदरता,  परखने की क्षमता,  ओछी हो गई…  नहीं फुर्सत है किसी को,  शब्दों के पीछे झांके,  जो दिखता है जैसा हो,  वह वैसा ही समझा जाता है…  सबको हक है, चिल्लाने का, सबको हक है ,बक जाने का,  जिसकी जितनी क्षमता वैचारिक,  वह उतना ही तो सोचेगा…  पर इस तानेबाने में आखिर , विकसित कैसी होगी  फिर पौध नई…  कैसी होगी उसकी ऊर्जा…  कितना विकसित मस्तक होगा…

सावन

जब बारिश की रातों में  बूंदें छत से टपका करती थीं…  छम-छम गाता था सावन  सब बाग बगीचे खिल जाते थे । तुम बरषा मल्हार थे गाते  वह बावली… घर का कोना-कोना ढंकती थी,  यहां वहां की सुध रखती थी , जाने कितने आंसू पीती थी । रात रात भर नींद चौकन्नी ,  दिन को चैन कहां रहता था … उन पानी की बूंदों से ही  गीला हर एक कोना रहता था,  सीलन की मारी दीवारें  खुलकर सांस कहां लेती थीं, मेघ गरजता देख बावली  अपने छत की जेबें गिनती थी…