Skip to main content

जी लूं

कागा, मेरे मन की, 

मैं जानूं ,तू जाने ,

अब की जो रैना है आई ,

शायद भोर ना होवे ,

तू तो काग है, 

संग तिहारे 

तेरे पंख पखारे, 

मैं मयूरी पंख झूठे 

खोखले सतरंगी, 

बहुत गीली देह है वह 

नहीं पानी नहीं है, 

फिसलन है 

कभी पकड़ पाती नहीं, 

हर बार मेरे हाथ से वह 

छूटता ही जा रहा ,

कागा, अब की जब वह आवे 

मोहे पहिले बतलाना ,

शायद हाथों में माटी हो ,

शायद थोड़ी शक्ति हो ,

मैं शायद उसको रख लूं ,

कुछ क्षण को ही ,

मैं शायद उसको पा लूं ,

वह निर्मोही पल भर आवे ,

तो यह अमा चंद्रमा पा ले ,

वैतरणी की तीर खड़ी 

मैं कुछ बूंदें पी लूं ,

कुछ क्षण को ही 

शाश्वत जीवन जी लूं...!

Comments

Popular posts from this blog

थाम लूं उसे

वह हवा के झोंके की तरह है  हाथ बढ़ाओ तो आता नहीं…  थाम लूं उसे तो वाह  वरना आह…  वह सोऊं तो सोने नहीं देता  जागूं तो हर आहट में है  हवा की गुनगुनाहट में  सरसराहट में है…  मेरी सोच में शामिल है जो  जिसकी छुअन गुदगुदाती है  जिसकी गाढ़ी छुअन तड़पाती है…  ऐसा है वह  जिसे पाने की ललक में  हर काम बेमतलब…  वह 'मच्छर' चोट्टा  कभी हाथ आए तो  मसल दूं उसे… 

कैसी होगी

बहुत छिछलापन है,  वैचारिक नभ में,  जग के…  सबको भाती प्यारी बातें,  सबको प्रिय हैं सुंदर चेहरे,  पीछे की सुंदरता,  परखने की क्षमता,  ओछी हो गई…  नहीं फुर्सत है किसी को,  शब्दों के पीछे झांके,  जो दिखता है जैसा हो,  वह वैसा ही समझा जाता है…  सबको हक है, चिल्लाने का, सबको हक है ,बक जाने का,  जिसकी जितनी क्षमता वैचारिक,  वह उतना ही तो सोचेगा…  पर इस तानेबाने में आखिर , विकसित कैसी होगी  फिर पौध नई…  कैसी होगी उसकी ऊर्जा…  कितना विकसित मस्तक होगा…

सावन

जब बारिश की रातों में  बूंदें छत से टपका करती थीं…  छम-छम गाता था सावन  सब बाग बगीचे खिल जाते थे । तुम बरषा मल्हार थे गाते  वह बावली… घर का कोना-कोना ढंकती थी,  यहां वहां की सुध रखती थी , जाने कितने आंसू पीती थी । रात रात भर नींद चौकन्नी ,  दिन को चैन कहां रहता था … उन पानी की बूंदों से ही  गीला हर एक कोना रहता था,  सीलन की मारी दीवारें  खुलकर सांस कहां लेती थीं, मेघ गरजता देख बावली  अपने छत की जेबें गिनती थी…