राही मैं अंजान, तुम्हारी इन राहों से, ओ राही ! क्या दुर्गम हैं ये ? क्या इसमें कांटे ही हैं ? या पत्थर की चोट, लगती रहती हर पल, कोई कैसे चलता है ? कब तक चलता है ? चुप रहकर , वह सब सहता है, या ढ़ह रहता है, ओ राही ! क्या सब चलते हैं ? क्या सब गिरते हैं ? या झुक कर चलते हैं, बच कर चलते हैं, फिर जब अनासक्त होते हैं , तब सो रहते हैं, पाने को वह चिर निद्रा , जहां कोई राह नहीं है, ना पथ है, ना साथी है, ओ राही ! अब तुम ही कह दो , यह राह कहां तक जाएगी , यह राह कहां ले जाएगी ? कब तक इस पर चलना होगा, कांटों को दामन में , सीना होगा, कब तक यूं ही जीना होगा…?
विभिन्न विषयों पर मौलिक कविताएं, कहानियां।