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Showing posts from April, 2024

जीना होगा

राही मैं अंजान, तुम्हारी इन राहों से,  ओ राही !  क्या दुर्गम हैं ये ? क्या इसमें कांटे ही हैं ? या पत्थर की चोट,  लगती रहती हर पल,  कोई कैसे चलता है ? कब तक चलता है ?  चुप रहकर , वह सब सहता है,  या ढ़ह रहता है,  ओ राही !  क्या सब चलते हैं ?  क्या सब गिरते हैं ?  या झुक कर चलते हैं,  बच कर चलते हैं,  फिर जब अनासक्त होते हैं , तब सो रहते हैं,  पाने को वह चिर निद्रा , जहां कोई राह नहीं है,  ना पथ है, ना साथी है,  ओ राही ! अब तुम ही कह दो , यह राह कहां तक जाएगी , यह राह कहां ले जाएगी ?  कब तक इस पर चलना होगा,  कांटों को दामन में , सीना होगा,  कब तक यूं ही जीना होगा…?

मेरे भाई

दो छोटी छतरी होती थी,  उसमें कुछ बैठक देकर,  फिर ढंक कर उसे , घुस जाते थे हम,  बरखा के भीगे दिन में,  मेरे भाई… लुका छुपी का खेल , वहां होता था,  या फिर होता था,  गुड़ियों का संसार नया,  कोई दुनिया की  तकरार नहीं,  कोई मन में रार नहीं,  छोटी-छोटी बातें,  छोटे झगड़े,  बड़े नखरे,  फिर पता नहीं,  कब और कैसे,  खेल खिलौने सज जाते थे,  अब बहुत दूर हैं राहें,  मीत नेह की डोर,  हृदय में बंधी हुई है,  हैं बंधे हुए अब भी हम,  बस छतरी अलग-अलग है,  मेरी तेरी…  हम अपनी अपनी छतरी ओढ़े , अपना खेल रचाते हैं,  बस देख रहे एकदूजे को,  पर साथ निभा ना पाते हैं…!

यूं ही

वही समय है, वही कार्य है, वही लोग हैं, वचन वही है, नहीं कुछ नवल, मिला है आज, फिर नयन वही, अवलोकित, सीमा दृष्टि वही, कुछ अलसाया, कोलाहल करता, धृष्ट दुराग्रही, हृदय वही है, उत्सुक हाथों को, नहीं मिला है, स्पर्श नवल, उनींदी पलकें, बोझिल रातें, दिन खोये, कुछ व्यर्थ, अलाप प्रलाप, कुछ छेड़छाड़ के साथ नहीं, फिर जाएगा एक दिन, आज भी  यूँ ही।

थम जा जरा

ऐ निरंकुश चित्त,  बेपरवाह मन,  थम जा जरा,  जो भागता ही जा रहा,  हर बांध नाके तोड़ कर , थम जा जरा,  तन की भी सीमाएं परख ले,  तू देख ले सामर्थ्य उसकी,  किलोल कर, फांद कर , उन्मत्त होकर, नाच कर,  ऐ मन मेरे,  आहत न हो , थम जा जरा,  तू बंधा जिस देह से,  तू जुड़ा जिस गेह से , सुननी ही होगी,  पुकार उसकी,  रुकना ही होगा,  नाद सुन, उन दरख्तों का,  थम जा जरा , ऐ निरंकुश चित्त , बेपरवाह मन , थम जा जरा…!

खुशकिस्मत हो

मानो तुम खुशकिस्मत हो,  कोई मीठे बोलों से बोल रहा,  मन की गांठों को खोल रहा,  तेरे कंधे पर सर रखकर,  अपने सारे गम भूल रहा,  तो मानो तुम खुशकिस्मत हो।  हो छांव  किसी अंगना  की,  हो धूप भरी बदरा की,  हो शीतल हवा का झोंका,  हो मरहम गर घावों की,  तो मानो तुम खुश किस्मत हो । गर रोज-रोज हंस लेते हो,  दिल खोल कहीं रख देते हो,  मन के गहरे कोने में,  शोर नहीं खामोशी है , तो मानो तुम खुश किस्मत हो ।