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मेरे भाई

दो छोटी छतरी होती थी, 

उसमें कुछ बैठक देकर, 

फिर ढंक कर उसे ,

घुस जाते थे हम, 

बरखा के भीगे दिन में, 

मेरे भाई…

लुका छुपी का खेल ,

वहां होता था, 

या फिर होता था, 

गुड़ियों का संसार नया, 

कोई दुनिया की 

तकरार नहीं, 

कोई मन में रार नहीं, 

छोटी-छोटी बातें, 

छोटे झगड़े, 

बड़े नखरे, 

फिर पता नहीं, 

कब और कैसे, 

खेल खिलौने सज जाते थे, 

अब बहुत दूर हैं राहें, 

मीत नेह की डोर, 

हृदय में बंधी हुई है, 

हैं बंधे हुए अब भी हम, 

बस छतरी अलग-अलग है, 

मेरी तेरी… 

हम अपनी अपनी छतरी ओढ़े ,

अपना खेल रचाते हैं, 

बस देख रहे एकदूजे को, 

पर साथ निभा ना पाते हैं…!

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