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सावन

जब बारिश की रातों में 

बूंदें छत से टपका करती थीं… 

छम-छम गाता था सावन 

सब बाग बगीचे खिल जाते थे ।

तुम बरषा मल्हार थे गाते 

वह बावली…

घर का कोना-कोना ढंकती थी, 

यहां वहां की सुध रखती थी ,

जाने कितने आंसू पीती थी ।

रात रात भर नींद चौकन्नी , 

दिन को चैन कहां रहता था …

उन पानी की बूंदों से ही 

गीला हर एक कोना रहता था, 

सीलन की मारी दीवारें 

खुलकर सांस कहां लेती थीं,

मेघ गरजता देख बावली 

अपने छत की जेबें गिनती थी… 


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