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देना लेना पड़े

वृक्ष से लिपटने, लटकने, 

फिर व्यथित हो छिटकने ,

को बनी हो क्या लता… 

क्या तेरा अस्तित्व इसी में है 

कि खो दो अपना अस्तित्व… 

गर्व से क्या इसलिए 

उठती नहीं तुम… 

कमजोर शिराओं से लुंज पुंज 

वृक्ष पर खोकर रहती हो… 

हे लते ! क्या वृक्ष को भी 

तुम प्रिय हो… 

क्या कभी कहता है वह 

तुझ बिन मैं अधूरा था… 

तेरे फलों से मैं फला, 

संपूर्ण आलोकित हुआ ,

तेरे दुखों से दुखित हो 

क्या जड़ित संवेदन हृदय 

दो बूंद में ढलकते हैं कभी… 

तू लिपट गई प्रेम से 

अब जिन शिराओं में 

हे लते ! सौगंध है उसकी तुझे 

ना मांग कुछ ऐसा 

जो व्यथा का कारण बने 

मन प्राण देकर भला 

क्या देना लेना पड़े…

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