बहुत छिछलापन है, वैचारिक नभ में, जग के… सबको भाती प्यारी बातें, सबको प्रिय हैं सुंदर चेहरे, पीछे की सुंदरता, परखने की क्षमता, ओछी हो गई… नहीं फुर्सत है किसी को, शब्दों के पीछे झांके, जो दिखता है जैसा हो, वह वैसा ही समझा जाता है… सबको हक है, चिल्लाने का, सबको हक है ,बक जाने का, जिसकी जितनी क्षमता वैचारिक, वह उतना ही तो सोचेगा… पर इस तानेबाने में आखिर , विकसित कैसी होगी फिर पौध नई… कैसी होगी उसकी ऊर्जा… कितना विकसित मस्तक होगा…
विभिन्न विषयों पर मौलिक कविताएं, कहानियां।
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