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Showing posts with the label By- Rashmi jha Mishra

है क्लेश

बना रहे तुम जो चरित्र,  वह मुझे नहीं भाता,  मुझे नहीं भाता,  लेकिन है क्लेश,  सदा वह मेरा ही कहलाता।  मुझ में ढलकर,  मुझ में गलकर,  मुझ में रचकर,  मुझ में पलकर,  वह छाया है कुछ ऐसा,  पीड़ित होता हिय,  कुछ  समझ नहीं पाता।  बना रहे तुम जो चरित्र,  वह मुझे नहीं भाता,  मुझे नहीं भाता , लेकिन है क्लेश,  सदा वह मेरा ही कहलाता।  हर पल का अपना जीवन है, उस पल में जो भी होता है, उसका विश्लेषण करता,  यह मन मेरा, है उलझ रहा,  खुद से प्रतिपल।  बना रहे तुम जो चरित्र,  वह मुझे नहीं भाता,  मुझे नहीं भाता,  लेकिन है क्लेश,  सदा वह मेरा ही कहलाता।

निशा है यह

निशा है यह।  जब अहम की नींद सोया,  दर्प से करवट बदल,  सांस लंबी ले रहा,  सोया है मानव,  निशा है यह।  लोभ की जम्हाई लेता,  दंभ से मू़ंद आंखें,  स्वयं को भूल,  सोया है मानव,  निशा है यह।  कब जगा, सोचूं , तो देखूं, नहीं है सत्य,  वह सोया पड़ा है,   निशा है यह।  क्रोध की अंगड़ाई लेकर,  खीझ से मुंह को उठाए,  भींचकर नथूने,  खर्राटे भर रहा,  सोया है मानव,  निशा है यह।  नींद में तफरीह करता,  बिछौने पर,  ज्यों दूसरों पर,  दोष मढता स्वयं का,  सोया है मानव,  निशा है यह।  उन्माद में पलकें गिराए,  वर्चस्व से है काठ सा,  गिरकर पड़ा,  सोया है मानव,  निशा है यह। 

ले आए जीवन

तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  सब छूट गई अलियां-कलियां,  सब बिखर गए सपने-अपने,  सब टूट गए बर्तन मिट्टी के,  सब बिछड़ गई कपड़े की गुड़ियां,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  तब छुट्टी के दिन होते थे,  अब हर दिन एक से होते हैं, कुछ व्यस्त समय भागा-भागा,  अब व्यर्थ समय जागा-जागा,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  लगता है अनमोल थे पल,  वे पल जिनमें हम रोते थे,  छोटी बातों पर,  और मनाने पर, खिल जाते थे,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  तब पतझड़ भी हंसते थे,  अब सावन भी खोए होते हैं,  तब किलकता था,भीड़ जीवन में,  अब जीवन में एकाकी है,  मिलकर हंसते थे, शोर भरे,  सब भूले हास विलास,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन।

अक्सर

पेड़ों को ऊंचा उठने को,  नीचे का मोह भुलाना ही होता है,  अक्सर। शाखों पर नीचे डोल रहे पत्तों को,  गिर जाना ही होता है,  अक्सर । साथ रखने की कवायद में,  पेड़ नहीं बढ़ पाते हैं,  अक्सर।  झाड़ी बनकर झुरमुट में,  अस्तित्व गंवा देते हैं,  अक्सर।  लाख मना लो शाखों को,  लाख करो पत्तों से प्यार,  पतझड़ आने पर साथ छोड़ जाते हैं,  अक्सर।

सोच बड़ी खुदगर्ज

एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है,  रोकती है जो, हर प्यारी राह।   जिसकी आकृति विकृत,  जो जलाकर,तोड़ती परोक्ष को,  बनाकर कई नए चेहरे निरंतर , जो पाषाण है, जड़ है, नहीं संवेदना जिसकी धरा पर,  स्थिर है जो ,ऐसी कुटिल काया,  जो बहती सदा निर्मूल। एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है,  रोकती है जो, हर प्यारी राह।  हिलोरें लेती आती, सुंदर ललना,  दिखाती स्वप्न नए,विचारों में अक्सर,  काया बना जाती निर्मल,  फिर दूर खड़ा हंसता,  "निष्ठुर", करता आता बतकही,  दिखाता फिर जीवन दर्पण,  जहां डूब जाती आशा , फिर फिर उठती, फिर फिर गिरती,  अंत का करती विकल विचार। एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है,  रोकती है जो, हर प्यारी राह।

किनारा कहां तेरा

अंधी गलियों में दौड़ पड़े,  अब ठौर ठिकाना कहां तेरा,  हां मेरे सपनों की मंजिल,  बोल किनारा कहां तेरा।  मुश्किल था यह जाना था,  पर पीछे हटना होगा , यह सोच ना थी , अब घबराकर काली रातों से,  बोल सवेरा कहां तेरा,  हां मेरे सपनों की मंजिल,  बोल किनारा कहां तेरा। जो थामे हाथ सहारे का , जो राह बता दे आगे का,  जो रौशन कर दे पथ तेरा, वो आलोकित तारा कहां तेरा,  हां मेरे सपनों की मंजिल,  बोल किनारा कहां तेरा।

अब भी लिखती हूं

शंका की स्याही में,  कलम डुबा , मैं अब भी लिखती हूं ।   कितने शब्दों का तर्पण कर,  कितने शब्दों को मार,  बचे हुए शब्दों से हार , मैं अब भी लिखती हूं।  क्या होगा लिखकर , क्यों कलम की स्याही,  खत्म कर रही,  यह सोच-सोच थककर भी , मैं अब भी लिखती हूं । कई सुलझे शब्द,  कई उलझे जज्बात,  समय की भेंट चढ़े,  कलम की धार बने ना,  इस उलझन के साथ,  मैं क्यों लिखती हूं?  मैं अब भी लिखती हूं । उम्मीदों के पंख कतर,  आशाओं का घोंट गला,  कुछ सुकून के पल पाने को,  मैं अब भी लिखती हूं।

फिर आज

स्वयं से इतर , जो अभिव्यक्ति है, दुख की व्यथा की,  वह तुम्हें सहृदय समर्पित।  तुम करो उनका निवारण। तुम सुनो उनकी कथा,  उनकी व्यथा।  मैं नहीं अनंत तुमसे,  हर घड़ी यह करूंगी,  तुच्छ निवेदन जागृति का।  तुम सुप्त कब हो,  लेकिन स्वयं के संबंध में,  मैं नहीं मौन रह पाऊंगी।  हे प्रभु मैं नहीं ईश्वर, किसी के मौन का , किसी विलाप का,  चिर स्मरण तुम्हें है।  तो जग की फैली,  चादर वेदना की,  उसमें कुछ फूल प्रेम के,  कुछ क्षण विस्मृति के,  फिर आज डाल दो

क्या मुमकिन है

क्या मुमकिन है?  जीवन भर का साथ निभाना,  बिन साथी के , क्या मुमकिन है ? एक वादे पर उम्र बिताना , हंसते-हंसते , क्या मुमकिन है ? हर आंसू, हर शिकवा , सारे गिले ,चुपचाप कहे बिन,  चलते जाना,  क्या मुमकिन है?  कुछ लम्हे की यादें ऐसी,  धुंधली ना हो जन्म-जन्म तक, क्या मुमकिन है?

ये पदचिन्ह तुम्हारे हैं

ये पदचिन्ह तुम्हारे हैं , ये जीवन के अंश तुम्हारे हैं,  इन्हें मान कर ईश्वर , क्या नमन करूं मैं ? जो दुख देते पल-पल, क्या स्तवन करूं मैं? ये पदचिन्ह तुम्हारे हैं, ये जीवन के अंश तुम्हारे हैं,  या प्रतिशोध की ज्वाला में , दाह करूं मैं,  इन नाहक जीवों का,  संहार करूं , परित्याग करूं, तिरस्कार करूं मैं, ये पद चिन्ह तुम्हारे हैं,  ये जीवन के अंश तुम्हारे हैं।

है विचार कैसा

उन्मुक्त गगन के तारे थे, स्वच्छंद विचरते जाते थे , एक भीड़ पड़ी , जंजीर पड़ी,  ना छोड़ सके,  ना तोड़ सके , जकड़े हुए ज्यों पास में , निरंतरता के आभास में,  सुई से घूम रहे , पात से झूल रहे , ना थमती सुई,  ना गिरता पात,  यह व्यथा है विरह की,  या वेदना अभाव का , यह स्वयं से विरक्त,  या पर से त्यक्त, यह आभास कैसा,  है विचार कैसा।

बहते जाना

नदिया से समंदर दूर बहुत है,  पैदल चलते जाना , नाव मिले तो ठीक,  नहीं तो धारा में , बहते जाना , छोड़ किनारों को , किनारे बहुत लुभाएंगे , बहते जाना , एक दिन तो समंदर अंतहीन,  ऐसा मिल जाएगा , वापस जा न सकोगे,  एक बार मिले तो , अस्तित्व दोबारा पा न सकोगे,  सब छोड़ के बढ़ना है तो , बहते जाना,  वरना किनारों से ही,  मन बहलाना।

यूं ही चले

शब्दों की चिता पर  लेट कर चादर बिछा,  जला अरमानों की होली,  फिर आज निकली है , किसी जंग में बिन लड़े,  शहीदों की टोली,  शहादत देने को , जो सपने देख कर , पल भर न सोया,  वह आज क्यों?  अपनी बेमतलब की मौत पर  दहाड़ें मार कर रोया  क्यों कफन की सिसकियाँ, कोई नहीं सुन पा रहा?  क्यों जो सीने  पदकों मेडलों के सपने,  शब्दों में जिए , आज पाए बिना,  यूं ही चले।

हरि बोल रे 3

क्यों जीवन से हार गए , क्यों अपनी सांसें वार गए,  क्यों ले ली अपनी जान रे,  हरि बोल रे ,हरि बोल रे  हरि बोल रे ,हरि बोल रे । सब गलत हुआ, चल मान लिया,  कुछ भी ना मिला, चल मान लिया,  पर यह कैसा प्रतिशोध रे।  हरि बोल रे, हरि बोल रे,  क्यों ले ली अपनी जान रे,  हरि बोल रे, हरि बोल रे,  वह रूठ गया, सब छूट गया , वह पा न सका, पाने निकला,  दोराहे में क्या राह चुनी,  अपनों को रोता छोड़ रे,  हरि बोल रे, हरि बोल रे,  हरि बोल रे, हरि बोल रे।

जहां चितचोर

चंचल स्मृति से दूर , विरह से दूर, मिलन से दूर,  नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।  स्वयं को दे नूतन आयाम,  स्वर्णिम पंखों की आभा ले,  स्वच्छंद नया आभास भरे , नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।  जिसकी बंसी प्रिय से प्रियतम,  मन उन चरणों को थाम,  जहां होकर निष्काम,  इतर जीवन मृत्यु से,  नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर । उन्माद नहीं, अभिलाष नहीं , स्वत्व से पूर्ण,स्वयं से पूर्ण,  आकांक्षा मधुर औ तिक्त नहीं,  नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।  चंचल स्मृति से दूर,  विरह से दूर ,मिलन से दूर , नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।

थोड़े शब्दों में

संयम की पाठशाला में,  अब गिनती के बच्चे,  इन गिने-चुने के साथ से,  कैसे बचेगी नींव संयम की, किसी के पास इतना समय नहीं,  जो सुने तुम्हारी घंटों की फटकार,  बस अपनी फरियाद लगा दो,  थोड़े शब्दों में।

बच ले

उत्तेजित हृदय गर शांत रहता,  क्षणिक आवेश में , कुछ गलत ना कार्य करता। साधना मन की, तन की,  जीवन की सब है सफल,  तभी, जब नियंत्रण कर सके,  खुद पर सही।  क्या हुआ? मन का ना पाया,  क्या हुआ? मन को न भाया,  फिर करेंगे, मन की कभी।  यह सोचकर,  आवेश की मूढता से , पहले जरा बच ले।

शामिल हो तुम

क्या शामिल हो तुम?  अस्तित्व के संघर्ष में,  हर सांस की , क्रिया प्रतिक्रिया में,  क्या शामिल हो तुम?  मेरे दृष्टि के हर दृश्य में,  मेरे करों के स्पर्श में प्रत्येक,  क्या शामिल हो तुम?  काजल सी घोर निशा में,  दृष्टि को चीर, दृश्य से दूर,  क्या पाथेय? तन में शामिल हो तुम,  हो अथवा प्रकाश की , उन्मत्त अभ्यस्त किरणों में , अथवा विचक्षु को चक्षु का,  आभास देते,  क्या शामिल हो तुम?  क्या ? तुम्हारे वक्ष पर,  यह पग मेरा बढ़ता सहज,  हर कदम के आरोह से , अवरोह के मध्य में , क्या शामिल हो तुम?  हर विचार के,  आदि ना हो , अंत ना हो तुम,  पर चेतना के क्षण में प्रत्येक,  क्या शामिल हो तुम?

नई पीढ़ी

 यह है नई पीढ़ी,  तकनीक इसके हाथ में,  असंयम इसके साथ में,  तकनीक के व्यूह में,  उलझा हुआ यह। यहां जगत के सब,  उलझनों का इलाज है।  बिना इसके तो, जिंदगी बेकार है।  अपना रौब दिखाना,  जरा संभल कर,  यह है नई पीढ़ी,  तकनीक इसके हाथ में,  असंयम इसके साथ में।

अबुझ पहेली

ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे, सन्नाटा मरघट सा।  जितनी ऊंची है दीवारें , जितनी रंगीन मिनारें हैं , उतनी बेरंगी तन्हा , सूनी जिंदगानी है।  बड़े-बड़े शहरों के,  छोटे-छोटे कमरे हों, या आलीशान हवेली, इंसानों को इंसान ढूंढता,  कैसी अबुझ पहेली।