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Showing posts with the label Hindi Kavita

देना लेना पड़े

वृक्ष से लिपटने, लटकने,  फिर व्यथित हो छिटकने , को बनी हो क्या लता…  क्या तेरा अस्तित्व इसी में है  कि खो दो अपना अस्तित्व…  गर्व से क्या इसलिए  उठती नहीं तुम…  कमजोर शिराओं से लुंज पुंज  वृक्ष पर खोकर रहती हो…  हे लते ! क्या वृक्ष को भी  तुम प्रिय हो…  क्या कभी कहता है वह  तुझ बिन मैं अधूरा था…  तेरे फलों से मैं फला,  संपूर्ण आलोकित हुआ , तेरे दुखों से दुखित हो  क्या जड़ित संवेदन हृदय  दो बूंद में ढलकते हैं कभी…  तू लिपट गई प्रेम से  अब जिन शिराओं में  हे लते ! सौगंध है उसकी तुझे  ना मांग कुछ ऐसा  जो व्यथा का कारण बने  मन प्राण देकर भला  क्या देना लेना पड़े…

सावन

जब बारिश की रातों में  बूंदें छत से टपका करती थीं…  छम-छम गाता था सावन  सब बाग बगीचे खिल जाते थे । तुम बरषा मल्हार थे गाते  वह बावली… घर का कोना-कोना ढंकती थी,  यहां वहां की सुध रखती थी , जाने कितने आंसू पीती थी । रात रात भर नींद चौकन्नी ,  दिन को चैन कहां रहता था … उन पानी की बूंदों से ही  गीला हर एक कोना रहता था,  सीलन की मारी दीवारें  खुलकर सांस कहां लेती थीं, मेघ गरजता देख बावली  अपने छत की जेबें गिनती थी… 

पूरा करती हूं

राधे ! जीवन पथ पर चलते…  चलते गिरते और संभलते  प्रथम चरण पूरा करती हूं । स्मृति का अवगुंठन ले  कज्जल जल नेत्रों में ले   पुष्पों के आंचल में  कुछ कंटक सीकर   मैं प्रथम चरण पूरा करती हूं । राधे ! पग पग पर जागृत थीं तुम  निशा में धवल आकाश सी सज कर  मैं थी भिखारण  तुम दात्री सी बनकर  दुखों का आक्षेप सहती  क्रोध कुंठा ज्वाल में हवी बन  शांति आह्लाद का  प्रतिकार देने वाली  सुनो अब प्रथम चरण पूरा करती हूं  और जितने भी चरण हैं  इस धरा पर  वे तुम्हें कर दूं समर्पित इस घड़ी  भूल जाऊं मैं कहीं ना फिर तुम्हें भी  इसलिए यह दूषित धूरी  रख लो चरणों के पास कहीं  अब कुछ खोकर कुछ पाने को  मैं प्रथम चरण पूरा करती हूं  राधे जीवन पथ पर चलते  चलते गिरते और संभलते  प्रथम चरण पूरा करती हूं…

थाम लूं उसे

वह हवा के झोंके की तरह है  हाथ बढ़ाओ तो आता नहीं…  थाम लूं उसे तो वाह  वरना आह…  वह सोऊं तो सोने नहीं देता  जागूं तो हर आहट में है  हवा की गुनगुनाहट में  सरसराहट में है…  मेरी सोच में शामिल है जो  जिसकी छुअन गुदगुदाती है  जिसकी गाढ़ी छुअन तड़पाती है…  ऐसा है वह  जिसे पाने की ललक में  हर काम बेमतलब…  वह 'मच्छर' चोट्टा  कभी हाथ आए तो  मसल दूं उसे… 

कैसी होगी

बहुत छिछलापन है,  वैचारिक नभ में,  जग के…  सबको भाती प्यारी बातें,  सबको प्रिय हैं सुंदर चेहरे,  पीछे की सुंदरता,  परखने की क्षमता,  ओछी हो गई…  नहीं फुर्सत है किसी को,  शब्दों के पीछे झांके,  जो दिखता है जैसा हो,  वह वैसा ही समझा जाता है…  सबको हक है, चिल्लाने का, सबको हक है ,बक जाने का,  जिसकी जितनी क्षमता वैचारिक,  वह उतना ही तो सोचेगा…  पर इस तानेबाने में आखिर , विकसित कैसी होगी  फिर पौध नई…  कैसी होगी उसकी ऊर्जा…  कितना विकसित मस्तक होगा…

जीना होगा

राही मैं अंजान, तुम्हारी इन राहों से,  ओ राही !  क्या दुर्गम हैं ये ? क्या इसमें कांटे ही हैं ? या पत्थर की चोट,  लगती रहती हर पल,  कोई कैसे चलता है ? कब तक चलता है ?  चुप रहकर , वह सब सहता है,  या ढ़ह रहता है,  ओ राही !  क्या सब चलते हैं ?  क्या सब गिरते हैं ?  या झुक कर चलते हैं,  बच कर चलते हैं,  फिर जब अनासक्त होते हैं , तब सो रहते हैं,  पाने को वह चिर निद्रा , जहां कोई राह नहीं है,  ना पथ है, ना साथी है,  ओ राही ! अब तुम ही कह दो , यह राह कहां तक जाएगी , यह राह कहां ले जाएगी ?  कब तक इस पर चलना होगा,  कांटों को दामन में , सीना होगा,  कब तक यूं ही जीना होगा…?

मेरे भाई

दो छोटी छतरी होती थी,  उसमें कुछ बैठक देकर,  फिर ढंक कर उसे , घुस जाते थे हम,  बरखा के भीगे दिन में,  मेरे भाई… लुका छुपी का खेल , वहां होता था,  या फिर होता था,  गुड़ियों का संसार नया,  कोई दुनिया की  तकरार नहीं,  कोई मन में रार नहीं,  छोटी-छोटी बातें,  छोटे झगड़े,  बड़े नखरे,  फिर पता नहीं,  कब और कैसे,  खेल खिलौने सज जाते थे,  अब बहुत दूर हैं राहें,  मीत नेह की डोर,  हृदय में बंधी हुई है,  हैं बंधे हुए अब भी हम,  बस छतरी अलग-अलग है,  मेरी तेरी…  हम अपनी अपनी छतरी ओढ़े , अपना खेल रचाते हैं,  बस देख रहे एकदूजे को,  पर साथ निभा ना पाते हैं…!

यूं ही

वही समय है, वही कार्य है, वही लोग हैं, वचन वही है, नहीं कुछ नवल, मिला है आज, फिर नयन वही, अवलोकित, सीमा दृष्टि वही, कुछ अलसाया, कोलाहल करता, धृष्ट दुराग्रही, हृदय वही है, उत्सुक हाथों को, नहीं मिला है, स्पर्श नवल, उनींदी पलकें, बोझिल रातें, दिन खोये, कुछ व्यर्थ, अलाप प्रलाप, कुछ छेड़छाड़ के साथ नहीं, फिर जाएगा एक दिन, आज भी  यूँ ही।

थम जा जरा

ऐ निरंकुश चित्त,  बेपरवाह मन,  थम जा जरा,  जो भागता ही जा रहा,  हर बांध नाके तोड़ कर , थम जा जरा,  तन की भी सीमाएं परख ले,  तू देख ले सामर्थ्य उसकी,  किलोल कर, फांद कर , उन्मत्त होकर, नाच कर,  ऐ मन मेरे,  आहत न हो , थम जा जरा,  तू बंधा जिस देह से,  तू जुड़ा जिस गेह से , सुननी ही होगी,  पुकार उसकी,  रुकना ही होगा,  नाद सुन, उन दरख्तों का,  थम जा जरा , ऐ निरंकुश चित्त , बेपरवाह मन , थम जा जरा…!

खुशकिस्मत हो

मानो तुम खुशकिस्मत हो,  कोई मीठे बोलों से बोल रहा,  मन की गांठों को खोल रहा,  तेरे कंधे पर सर रखकर,  अपने सारे गम भूल रहा,  तो मानो तुम खुशकिस्मत हो।  हो छांव  किसी अंगना  की,  हो धूप भरी बदरा की,  हो शीतल हवा का झोंका,  हो मरहम गर घावों की,  तो मानो तुम खुश किस्मत हो । गर रोज-रोज हंस लेते हो,  दिल खोल कहीं रख देते हो,  मन के गहरे कोने में,  शोर नहीं खामोशी है , तो मानो तुम खुश किस्मत हो ।

मत आओ ना

आज मेरे मन में है जो,  कर ही लेने दो मुझे वो , नहीं करना दिखावा प्यार का  है आज तुमसे  नहीं हंसना मुस्कुराना  देख कर परिचित चेहरे मुझे  साथी आज बस  मौन रहने दो । आज जो संतक्त सा,   बोझिल सा है  ये मन मेरा  तो देने संवेदना  कहने को दो बोल प्रिय  मत आओ ना । तुम दूर ही रह जाओ ना,  मुझे स्वयं से ही उलझने दो  घड़ी भर , स्वयं रोने दो, स्वयं संभलने दो,  घड़ी भर,  मत आओ ना।

प्रीत जगा देना

जब प्रीत नयन की निष्ठुर हो तब आत्मीय दीप जला लेना आक्रोश भरा जब जीवन हो तब शाश्वत प्रीत जगा देना। जब द्वन्द समाये शब्दों में  कर वृंद पार्श्व में कर लेना  जब ज्वलन युक्त हो नयन सजल  आरोह अवगुंठित कर देना। जब ठिठुर रहा हो शरद प्रिये  तब ऊष्मित वस्त्र बढ़ा देना  जब नमीं बदन की ताप मिले  तब निर्मल नीर बहा देना। वह असमय अग्रेसित हृदय  क्षुब्ध हो जब वापस हो जाए  एक बढ़ा हुआ उत्कर्ष शिथिल  नेह का बनकर पास आ जाना। जब प्रीत नयन की निष्ठुर हो  तब आत्मीय दीप जला लेना  आक्रोश भरा जब जीवन हो  तब शाश्वत प्रीत जगा देना।

जी लूं

कागा, मेरे मन की,  मैं जानूं ,तू जाने , अब की जो रैना है आई , शायद भोर ना होवे , तू तो काग है,  संग तिहारे  तेरे पंख पखारे,  मैं मयूरी पंख झूठे  खोखले सतरंगी,  बहुत गीली देह है वह  नहीं पानी नहीं है,  फिसलन है  कभी पकड़ पाती नहीं,  हर बार मेरे हाथ से वह  छूटता ही जा रहा , कागा, अब की जब वह आवे  मोहे पहिले बतलाना , शायद हाथों में माटी हो , शायद थोड़ी शक्ति हो , मैं शायद उसको रख लूं , कुछ क्षण को ही , मैं शायद उसको पा लूं , वह निर्मोही पल भर आवे , तो यह अमा चंद्रमा पा ले , वैतरणी की तीर खड़ी  मैं कुछ बूंदें पी लूं , कुछ क्षण को ही  शाश्वत जीवन जी लूं...!

देखे हैं

इन भौंडी तस्वीरों पर भी,  हंसने वाले देखे हैं,  हमने आग लगाने वाले,  जलने वाले देखे हैं,  कोई बहुत दूर तक साथी   तनहा भी चल लेते हैं,   हमने साथ निभाने वाले,  हाथ छुड़ाने वाले देखे हैं,  इन भौंडी तस्वीरों पर भी,  हंसने वाले देखे हैं,  सबकी अपनी दुनिया देखी,  सबके अपने सपने, उद्देश्य दिखे,  अपना जीवन ,अपना साथी , सबके अपने रस्ते देखे,  सब चलते हैं ,सब रुकते हैं , हमने दौड़ने वाले देखे,  ठेस लगी तो गिरने वाले,  उन्हें उठाने वाले देखे हैं,  इन भौंडी तस्वीरों पर भी,  हंसने वाले देखे हैं,  बस सपनों तक दुनिया जिनकी थी, उन्हें हकीकत बनते देखा,  हमने देखे गिरते घर , तो नए घरौंदे बनते देखा,  आज भी आती है जो सांस,  आज भी दिखते हैं जो सपने , फंसी हुई सांसों में भी , उन सपनों की तस्वीरें देखी , हमने गिरते उल्टे पलटे,  नाक चिढ़ाते हंसने वाले,  संवेदनहीन लोगों पर भी,  जान लुटाने वाले देखे , इन भौंडी तस्वीरों पर भी , हंसने वाले देखे हैं।

यूं ही

चेतन के अविरल प्रवाह,  कुछ देर जरा थम जा,  अभी बिता लेने दो,  कुछ समय अचेतन,  जब मैं जागी हूं  पर नहीं जागृत रहूं , जब तन में व्यथा हो,  लेकिन हृदय आनंद में हो,  कुछ समय ऐसा , जिसमें नहीं आवाज दे,  कहीं से कोई मुझे,  कुछ मैं कहूं ना,  सांसों की झंकार  जहां भी ना हो,  मलयानिल बहकर आए,  शीतल स्पर्श करे मुझको,  पर मेरे मन में,  ना हो हलचल,  बहने दो कुछ क्षण यूं ही....!

मनमानी

तुम जिसका आलंबन लेकर,  छूने को विकल हो रही,  गगन लतिके,   देखो तो पहले,  उसकी डालों में,  क्षमता कितनी है?  नहीं है सामर्थ्य उसमें,  उतना हे प्रिये!  तुम कुछ दिन ठहरो,  देखो क्षण भर,  सोचो रुक कर , या तुम झूम रही हो,  उन्मत्त होकर  बढ़ने की लालसा में,  जिसकी जड़ें खुद जमी नहीं,  वह कैसे सहेगा भार तेरा,  कहीं गिर कर खुद भी , उसे भी ना गिरा देना,  पर यदि तुम्हारा विश्वास है,  इतना सघन,  तो कर लो वही,  जो तुम चाहो,  कर लो अपनी मनमानी ।

री मानिनी

री मानिनी,  तू कमलिनी,  यह जानकर अपूर्ण है,  प्रिय चंद्र आज,  तू खिली ही नहीं  संपूर्ण हो,  नभ से धरा को देखता,  वह छुधित सरवर देखकर,  कुछ नीर फिर , कह कैसे बहाए ना?  री चंचला , तेरे अधर को छू गए,  जो बूंद दो,  वे धरोहर हैं प्रिय के , जो खोलना चाहते हैं,  नयन तेरे , तू देख तो पल भर,  नभ में वह अपूर्ण भी, अमा को काट लाया है  नई आभा धरा पर...।

भोर भरी

पात भरे चाक पर जो बैठी है  अली कली वात छुई,  कह तो कौन  डाल पर  जाएगी नीर भरी,  पात सभी  छूट कर , जब पतझड़ में  रूठ कर , चूमेंगे धरा सखी  खिल कर भी  रात भर  शीत तपी , किसलय पर छुटेगी  भोर भरी।

बहता है जीवन

बहुत दूर आ कर भी जीवन,  दो डग ना बढ़ पाए हम,  जिस जगह हुई थी राह शुरू,  हैं खड़े आज भी उसी डगर,  यह भूल भुलैया जीवन की,  भटकाती अगनित राहों में , टकराकर, गिरकर,  फिर उठकर भी,  वह सीमा अंतिम दिखती दूर,  क्षण क्षण दूर,  बहुत दूर उज्जवल,  थका कर अपना मानस नभ भी  नहीं पहुंच पाए उस तक,  वह आयाम लाकर वापस,  दे जाता है पग पहले , जहां से आरंभ हुई यह यात्रा,  संकुचित मानस , संकुचित दृष्टि,  कभी भी लेकर,  आगे नहीं जाएगी मुझको,  फिर भी क्यों बार-बार,  राह वही, पतवार वही,  धरकर बहता है जीवन।

अमरूद का पेड़

अपना कहने की सरहद से दूर,  एक पेड़ है अमरूद का । हर मौसम में फल लदा,  हर बच्चे की पहुंच तक,  हर चिड़िया का प्यारा , उस पेड़ पर कोई बंदिशें नहीं हैं,  उसे जिधर मन,  वह उधर बढ़ सकता है।  उसे जितना जी चाहे,  उतना फल दे सकता है।  हां, वह और पेड़ों से ज्यादा,  पत्थर की चोट ,  डंडों की मार भी सहता है , पर फिर भी वह बेखौफ है , उसे डर नहीं काटे जाने का,  उसे डर नहीं छांटे जाने का,  इसलिए शायद वह फलता बहुत है,  मीठा बहुत है, घना बहुत है , सबको बराबर फल, छाया, घर देता,  खुश बहुत है।