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मेरी क्षमता कितनी है

मेरी क्षमता कितनी है, क्या है मुझ में शक्ति?  क्या मैं बुन सकती हूं ? किसी के टूटे, बिखरे,  सपनों का घरौंदा,  अपनी क्षमता से।  क्या मैं लिख सकती हूं ? किसी की कल्पित , साधना का जीवन लेख , अपने हाथों से।  क्या मैं तेरे जीवन की लौ , पुनः जागृत कर सकती हूं।   क्या मैं किसी की दुःशंका , धो सकती हूं ,अपने वचनों से ? क्या मेरे आलंबन में है,  इतनी शक्ति,  दे दूं किसी को नवजीवन?  हर पल, हर क्षण , किसी का उपकार नहीं तो,  अपकार करुँ ना , क्या यह हो सकता है?  मेरी क्षमता कितनी है, क्या है मुझमें शक्ति?

मैं मौन हूं

हे चिर अपरिचित बंधु तुम , कैसे कहूं दो बोल परिचित, स्नेह से आबद्ध कर? मैं पूछ लूं कैसे तुम्हारे, क्लेश का कारण सहज?  कैसे बढ़ाकर हाथ , आंसू पोछ दूं तेरे नयन के,  जो पूछने को कुछ नहीं है , नहीं, ऐसा नहीं है , भय है उन परिचितों का , जो हैं मेरे हर वाक्य का,  करते अवलोकन, संरक्षण , क्या पता गर नहीं भाए,  उन्हें यह शब्द निर्धन, और,क्या पता है बंधु,  क्यों यह आशा करूं मैं, तुम भी सहज ही , लोगे,कहोगे । तुम हो अपरिचित,  नहीं मैं जानती हूं,  कुछ  प्रवृत्ति तुम्हारी, अगर तुम ही,  मुझे कुछ भेद की दृष्टि से , विदीर्ण कर दो , इसलिए सब सोच, कर,  सब जानकर मैं मौन हूँ।

आक्षेप ना कर दूसरों पर

हे हृदय के शून्य स्थल,  उद्विग्न होकर क्षणिक जड़ता से,  आक्षेप ना कर दूसरों पर। हे हृदय के शून्य स्थल , वह कार्य जो है घटित होता,  केवल नहीं वह आज है,  कल की सुभाषित प्रभा वेला ,  का वही आधार है । हे हृदय के शून्य स्थल , अवमानना की टीस है , या स्वत्व का अभिमान है,  जो कुछ भी है अज्ञान, तेरी मूढ़ता का प्रमाण है,  हे हृदय के शून्य स्थल, उद्विग्न होकर क्षणिक जड़ता से, आक्षेप ना कर दूसरों पर।

दो संग मेरा

घूम कर आया मेरा मन,  ले जाने वाले थे तुम , तुम ही ने खेल रचा , कुछ पात्र बुने,  बनाया सुंदर एक रंगमंच , कुछ नए पात्र शामिल करके,  मुझको भी बुलावा भेजा,  हो लिए स्वयं , तुम भी तो संग,  नया अभिनय, संवाद नए , कुछ गलत हुआ तो,  तुमने ही उसे संभाला,  अब थक कर मैं , वापस आई हूं , तुम भी आओ , दो संग मेरा , हर क्षण प्रतिपल।  घूम कर आया मेरा मन।

वह शून्य है

हर सांस का आधार बन, वह अपेक्षित, शून्य में है संग जो,  जो शून्य है, अदृश्य है , पर शून्यता के समय में,  जो संग है।  आभास है, निर्विकल्प का,  पग पाथेय भी निस्तेज है,  उस समय की शून्यता में, शून्य ही पाथेय है।   जो स्नेह का प्रतिबिंब है,  स्पर्श देकर निजकारों का,  जो शून्य में आह्लाद दे ,   वह शून्य है।

क्या मुमकिन है

क्या मुमकिन है?  जीवन भर का साथ निभाना,  बिन साथी के , क्या मुमकिन है ? एक वादे पर उम्र बिताना , हंसते-हंसते , क्या मुमकिन है ? हर आंसू, हर शिकवा , सारे गिले ,चुपचाप कहे बिन,  चलते जाना,  क्या मुमकिन है?  कुछ लम्हे की यादें ऐसी,  धुंधली ना हो जन्म-जन्म तक, क्या मुमकिन है?

थम जाना ना

बिन आंधी पानी झंझावातों के,  कौन फसल बनती पकती है,  कौन जगत में ऐसा,  जड़ हो या चेतन,  जिसे बिन संघर्ष मिला , जीवन पावन , जड़ को घिसकर बार-बार,  नया आकार मिला करता है,  जो घिसने से इंकार करे,  वह पत्थर ही रह जाता है,  चेतन फिर कैसे पाए , बिन गोते के मोती,  खाली सीपी हाथ है लगती,  तट पर खड़े-पड़े को , यह जीवन कहता है हमसे,  हर बार यही समझा कर,  जीवन के झंझावातों से,  थम जाना ना घबरा कर।

ये पदचिन्ह तुम्हारे हैं

ये पदचिन्ह तुम्हारे हैं , ये जीवन के अंश तुम्हारे हैं,  इन्हें मान कर ईश्वर , क्या नमन करूं मैं ? जो दुख देते पल-पल, क्या स्तवन करूं मैं? ये पदचिन्ह तुम्हारे हैं, ये जीवन के अंश तुम्हारे हैं,  या प्रतिशोध की ज्वाला में , दाह करूं मैं,  इन नाहक जीवों का,  संहार करूं , परित्याग करूं, तिरस्कार करूं मैं, ये पद चिन्ह तुम्हारे हैं,  ये जीवन के अंश तुम्हारे हैं।

है विचार कैसा

उन्मुक्त गगन के तारे थे, स्वच्छंद विचरते जाते थे , एक भीड़ पड़ी , जंजीर पड़ी,  ना छोड़ सके,  ना तोड़ सके , जकड़े हुए ज्यों पास में , निरंतरता के आभास में,  सुई से घूम रहे , पात से झूल रहे , ना थमती सुई,  ना गिरता पात,  यह व्यथा है विरह की,  या वेदना अभाव का , यह स्वयं से विरक्त,  या पर से त्यक्त, यह आभास कैसा,  है विचार कैसा।

बहते जाना

नदिया से समंदर दूर बहुत है,  पैदल चलते जाना , नाव मिले तो ठीक,  नहीं तो धारा में , बहते जाना , छोड़ किनारों को , किनारे बहुत लुभाएंगे , बहते जाना , एक दिन तो समंदर अंतहीन,  ऐसा मिल जाएगा , वापस जा न सकोगे,  एक बार मिले तो , अस्तित्व दोबारा पा न सकोगे,  सब छोड़ के बढ़ना है तो , बहते जाना,  वरना किनारों से ही,  मन बहलाना।

यूं ही चले

शब्दों की चिता पर  लेट कर चादर बिछा,  जला अरमानों की होली,  फिर आज निकली है , किसी जंग में बिन लड़े,  शहीदों की टोली,  शहादत देने को , जो सपने देख कर , पल भर न सोया,  वह आज क्यों?  अपनी बेमतलब की मौत पर  दहाड़ें मार कर रोया  क्यों कफन की सिसकियाँ, कोई नहीं सुन पा रहा?  क्यों जो सीने  पदकों मेडलों के सपने,  शब्दों में जिए , आज पाए बिना,  यूं ही चले।

हरि बोल रे 3

क्यों जीवन से हार गए , क्यों अपनी सांसें वार गए,  क्यों ले ली अपनी जान रे,  हरि बोल रे ,हरि बोल रे  हरि बोल रे ,हरि बोल रे । सब गलत हुआ, चल मान लिया,  कुछ भी ना मिला, चल मान लिया,  पर यह कैसा प्रतिशोध रे।  हरि बोल रे, हरि बोल रे,  क्यों ले ली अपनी जान रे,  हरि बोल रे, हरि बोल रे,  वह रूठ गया, सब छूट गया , वह पा न सका, पाने निकला,  दोराहे में क्या राह चुनी,  अपनों को रोता छोड़ रे,  हरि बोल रे, हरि बोल रे,  हरि बोल रे, हरि बोल रे।

जहां चितचोर

चंचल स्मृति से दूर , विरह से दूर, मिलन से दूर,  नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।  स्वयं को दे नूतन आयाम,  स्वर्णिम पंखों की आभा ले,  स्वच्छंद नया आभास भरे , नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।  जिसकी बंसी प्रिय से प्रियतम,  मन उन चरणों को थाम,  जहां होकर निष्काम,  इतर जीवन मृत्यु से,  नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर । उन्माद नहीं, अभिलाष नहीं , स्वत्व से पूर्ण,स्वयं से पूर्ण,  आकांक्षा मधुर औ तिक्त नहीं,  नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।  चंचल स्मृति से दूर,  विरह से दूर ,मिलन से दूर , नयन तू चल उस ओर जहां चितचोर।

थोड़े शब्दों में

संयम की पाठशाला में,  अब गिनती के बच्चे,  इन गिने-चुने के साथ से,  कैसे बचेगी नींव संयम की, किसी के पास इतना समय नहीं,  जो सुने तुम्हारी घंटों की फटकार,  बस अपनी फरियाद लगा दो,  थोड़े शब्दों में।

बच ले

उत्तेजित हृदय गर शांत रहता,  क्षणिक आवेश में , कुछ गलत ना कार्य करता। साधना मन की, तन की,  जीवन की सब है सफल,  तभी, जब नियंत्रण कर सके,  खुद पर सही।  क्या हुआ? मन का ना पाया,  क्या हुआ? मन को न भाया,  फिर करेंगे, मन की कभी।  यह सोचकर,  आवेश की मूढता से , पहले जरा बच ले।

शामिल हो तुम

क्या शामिल हो तुम?  अस्तित्व के संघर्ष में,  हर सांस की , क्रिया प्रतिक्रिया में,  क्या शामिल हो तुम?  मेरे दृष्टि के हर दृश्य में,  मेरे करों के स्पर्श में प्रत्येक,  क्या शामिल हो तुम?  काजल सी घोर निशा में,  दृष्टि को चीर, दृश्य से दूर,  क्या पाथेय? तन में शामिल हो तुम,  हो अथवा प्रकाश की , उन्मत्त अभ्यस्त किरणों में , अथवा विचक्षु को चक्षु का,  आभास देते,  क्या शामिल हो तुम?  क्या ? तुम्हारे वक्ष पर,  यह पग मेरा बढ़ता सहज,  हर कदम के आरोह से , अवरोह के मध्य में , क्या शामिल हो तुम?  हर विचार के,  आदि ना हो , अंत ना हो तुम,  पर चेतना के क्षण में प्रत्येक,  क्या शामिल हो तुम?