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लगता है मुझे

लगता है मुझे, सदियों से जगी हूं मैं, थककर चूर हूं मैं,  भीगी हुई ठंड से,  ठिठुर कर सहमी हूं मैं,  लगता है मुझे,  जग का पथ अगम,  जिस पर चलती रही सदियों,  अब भी बाकी है बहुत,  कांटों से बचती फिरती हूं मैं,  लगता है मुझे,  इस पथ पर मैं अकेली नहीं,  कोई और भी है साथ मेरे,  इसलिए अब तक चली हूं मैं,  लगता है मुझे,  बचा कर पत्थरों से राह के,  जो खींच रहा है मुझे,  वह रूठा है अभी,  इसलिए नहीं बढ़ती हूं मैं,  लगता है मुझे,  रुकी हूं जीवन पथ पर,  पत्थर की तरह,  ठोकर देती, सहती,अड़ी,पड़ी,  भूल कर अशेष को,  हाथ अपने स्वयं ही,  खींचती हूं मैं , लगता है मुझे।

कहां चली आई

मैना री तू नीड़ सुहाना,  छोड़ कहां चली आई?  जो चली आई,  तो चली आई,  मन क्यों ला ना पाई?  उस अंगना अब क्या रखा है !  ना अमवा, ना माई,  फुदक फुदक कर खेली सच है,  रोई, गाई सच है,  हर कोने से लाड़ लगाया,  हर मौसम में नाची,  अब तो पाहुन पंख गए,  लेकर हिय की तरुणाई।  मैना री तू नीड़ सुहाना,  छोड़ कहां चली आई ? अब इस मौसम में नीड़ नया है,  माई का और तेरा,  अल्हड़ खेलों की बगिया,  अब उजड़ गई पुरवइया,  उन खेलों के साथी सब,  उड़ गए अपनी दुनिया,  तू भी ना वापस आना,  जा ले जा अपना मन भी,  अब कोई नहीं ठिकाना,  यहां फिर ना तुझको आना । मैना री तू नीड़ सुहाना,  छोड़ कहां चली आई?

तरुणी

तरुणी के कोमल हिय ने, जब सर्वप्रथम यह जाना, वह क्या है?  कैसी है?  क्या है नारी की परिभाषा?   वह प्रभात की नव किसलय,  हो उठी सजग,  उसके अंतर्मन के उपवन में,  गहरी चेतना उत्पन्न हुई।   करुणा, व्यथा, विरह हो,  अथवा हर्षित मिलन की वेला,  संयम और सत्कार भरा ही,  होना था अब जीवन,   मधुर हास हो,  मधुर वाक् हो,   स्थिरता, गंभीरता हो , भूषण चरित्र का,  अल्हड़ चपल थी जो प्रभा,  अवगुंठन ले कर, कुछ लज्जा का,  सम्मोहित चितवन ले,  जागी फिर से वह, तरुणी.......।

नयन मत खोल

ओ, सपनों के पंख लगा उड़ने वाले नयन,  भ्रमर के संग रागिनी छोड़,  नयन मत खोल।  दूर कहीं पिंजर से मुक्त,  जो गा रही उन्मुक्त,  ना उसकी आंखें खोल,  गीत कर शुष्क,  सपनों की मधुर भुलैया में,  जो भूलते जाते पंथ,  उड़ा कर दूर , वहीं फिर भूल, न जा,  ओ, सपनों के पंख लगा,  उड़ने वाले नयन,  भ्रमर के संग रागिनी छोड़,  नयन मत खोल।  आयाम नया,  विस्तार नया,  है पंख नया,  आकाश नया,  उल्लास नया,  मत कर चेतन,  इनको खोकर,  ओ, सपनों के पंख लगा,  उड़ने वाले नयन,  भ्रमर के संग रागिनी छोड़,  नयन मत खोल।

है क्लेश

बना रहे तुम जो चरित्र,  वह मुझे नहीं भाता,  मुझे नहीं भाता,  लेकिन है क्लेश,  सदा वह मेरा ही कहलाता।  मुझ में ढलकर,  मुझ में गलकर,  मुझ में रचकर,  मुझ में पलकर,  वह छाया है कुछ ऐसा,  पीड़ित होता हिय,  कुछ  समझ नहीं पाता।  बना रहे तुम जो चरित्र,  वह मुझे नहीं भाता,  मुझे नहीं भाता , लेकिन है क्लेश,  सदा वह मेरा ही कहलाता।  हर पल का अपना जीवन है, उस पल में जो भी होता है, उसका विश्लेषण करता,  यह मन मेरा, है उलझ रहा,  खुद से प्रतिपल।  बना रहे तुम जो चरित्र,  वह मुझे नहीं भाता,  मुझे नहीं भाता,  लेकिन है क्लेश,  सदा वह मेरा ही कहलाता।

निशा है यह

निशा है यह।  जब अहम की नींद सोया,  दर्प से करवट बदल,  सांस लंबी ले रहा,  सोया है मानव,  निशा है यह।  लोभ की जम्हाई लेता,  दंभ से मू़ंद आंखें,  स्वयं को भूल,  सोया है मानव,  निशा है यह।  कब जगा, सोचूं , तो देखूं, नहीं है सत्य,  वह सोया पड़ा है,   निशा है यह।  क्रोध की अंगड़ाई लेकर,  खीझ से मुंह को उठाए,  भींचकर नथूने,  खर्राटे भर रहा,  सोया है मानव,  निशा है यह।  नींद में तफरीह करता,  बिछौने पर,  ज्यों दूसरों पर,  दोष मढता स्वयं का,  सोया है मानव,  निशा है यह।  उन्माद में पलकें गिराए,  वर्चस्व से है काठ सा,  गिरकर पड़ा,  सोया है मानव,  निशा है यह। 

ले आए जीवन

तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  सब छूट गई अलियां-कलियां,  सब बिखर गए सपने-अपने,  सब टूट गए बर्तन मिट्टी के,  सब बिछड़ गई कपड़े की गुड़ियां,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  तब छुट्टी के दिन होते थे,  अब हर दिन एक से होते हैं, कुछ व्यस्त समय भागा-भागा,  अब व्यर्थ समय जागा-जागा,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  लगता है अनमोल थे पल,  वे पल जिनमें हम रोते थे,  छोटी बातों पर,  और मनाने पर, खिल जाते थे,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन,  तब पतझड़ भी हंसते थे,  अब सावन भी खोए होते हैं,  तब किलकता था,भीड़ जीवन में,  अब जीवन में एकाकी है,  मिलकर हंसते थे, शोर भरे,  सब भूले हास विलास,  तुम दूर बहुत ले आए जीवन।

अक्सर

पेड़ों को ऊंचा उठने को,  नीचे का मोह भुलाना ही होता है,  अक्सर। शाखों पर नीचे डोल रहे पत्तों को,  गिर जाना ही होता है,  अक्सर । साथ रखने की कवायद में,  पेड़ नहीं बढ़ पाते हैं,  अक्सर।  झाड़ी बनकर झुरमुट में,  अस्तित्व गंवा देते हैं,  अक्सर।  लाख मना लो शाखों को,  लाख करो पत्तों से प्यार,  पतझड़ आने पर साथ छोड़ जाते हैं,  अक्सर।

सोच बड़ी खुदगर्ज

एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है,  रोकती है जो, हर प्यारी राह।   जिसकी आकृति विकृत,  जो जलाकर,तोड़ती परोक्ष को,  बनाकर कई नए चेहरे निरंतर , जो पाषाण है, जड़ है, नहीं संवेदना जिसकी धरा पर,  स्थिर है जो ,ऐसी कुटिल काया,  जो बहती सदा निर्मूल। एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है,  रोकती है जो, हर प्यारी राह।  हिलोरें लेती आती, सुंदर ललना,  दिखाती स्वप्न नए,विचारों में अक्सर,  काया बना जाती निर्मल,  फिर दूर खड़ा हंसता,  "निष्ठुर", करता आता बतकही,  दिखाता फिर जीवन दर्पण,  जहां डूब जाती आशा , फिर फिर उठती, फिर फिर गिरती,  अंत का करती विकल विचार। एक सोच बड़ी खुदगर्ज खड़ी है,  रोकती है जो, हर प्यारी राह।

एक बारहवीं पास

एक बारहवीं पास, निकला है घर से। उम्मीदों का बोझ उठाए,  कंधे पर,  जेबों में थोड़ी झिझक,  थोड़ी शर्म लिए,  आंखों में सपनों की धार , होठों पर कुछ विषाद सिए,   एक बारहवीं पास,  निकला है घर से। थोड़ी खुशियां,  थोड़ी उम्मीद लिए,  थोड़ी बेचैनी,  थोड़ा उन्माद लिए,  बेतरह कुछ पाने की,  चाह लिए,  एक बारहवीं पास,  निकला है घर से। आंखों में धूप सिए , कुछ आंसू, कुछ उत्साह लिए, बस्ते के बोझ तले,  जिम्मेदारी नई लिए,  भीतर बाहर की कोलाहल,  जज्ब किए,  एक बारहवीं पास , निकला है घर से । उन्नत भविष्य की चाह लिए,  संस्कारों की छाप,  आशाओं की आग लिए,  पानी में कूदा है,  किनारे की चाह लिए,  लहरों की थाह लिए बिन,  एक बारहवीं पास,  निकला है घर से।

एक पत्ता और मरा

एक पत्र बना खामोशी का, एक पत्र बना विप्लव का, मैं झूल रहा डाली में,  क्या एहसास है तुमको,  महसूस किया है कभी,  तुमने मेरा यह जीवन,  हूं असंख्य संख्या में,  पर नहीं असंख्यों के साथ,  कोई अलग पहचान मेरी,  मैं हूं अकेला,  हर हवा का झोंका,  हिलाता जा रहा,  हर जल की बूंद,  भिगोती जा रही , टूट भी जाऊंगा,  कभी होकर विवश,  इस डाल से,  तब भी नहीं,  कोई शिकन होगी,  तुम्हारे क्रूर चेहरे पर,  एक आह तो भरोगे जरूर,  लेकिन इसलिए नहीं,  की एक पत्ता और मरा,  इसलिए की एक कूड़ा और गिरा,  आंगन में मेरे,  हटाना होगा इसे।

किनारा कहां तेरा

अंधी गलियों में दौड़ पड़े,  अब ठौर ठिकाना कहां तेरा,  हां मेरे सपनों की मंजिल,  बोल किनारा कहां तेरा।  मुश्किल था यह जाना था,  पर पीछे हटना होगा , यह सोच ना थी , अब घबराकर काली रातों से,  बोल सवेरा कहां तेरा,  हां मेरे सपनों की मंजिल,  बोल किनारा कहां तेरा। जो थामे हाथ सहारे का , जो राह बता दे आगे का,  जो रौशन कर दे पथ तेरा, वो आलोकित तारा कहां तेरा,  हां मेरे सपनों की मंजिल,  बोल किनारा कहां तेरा।

आंसू बहा कर

एक सुराख सा लगता है,  क्या कोई बूंद दब गया?  इस रेत की महफिल में , या कोई छोड़ गया फिर,  देख उड़ती धूल , एक आंसू बहा कर।  एक सुराख सा लगता है , क्या अंजुमन में लौ जला , चिंगारी उठी और जल गया,  फिर घर मेरा,  या स्वप्न के सुलगते चीथड़े थे,  जो हृदय को फूंक कर , चुप हैं खड़े । एक सुराख सा लगता है,  क्या कोई आ रहा है,  दूर से छिपकर घने पत्तों में,  या धोखा हुआ,  फिर कोई, आंख का,  दूर तक खाली पड़ा मैदान है । एक सुराख सा लगता है,  क्या कोई बूंद दब गया ? इस रेत की महफिल में,  या कोई छोड़ गया फिर,  देख उड़ती धूल,  एक आंसू बहा कर।

दिवाली का त्यौहार

दिवाली के दिए पटाखे, किसको ना भाते,  किसे ना भाती फुलझड़ियां। किसे सुंदर कपड़ों में सजना,  घर को सजाना प्रिय नहीं लगता,  कौन कहता है नहीं झूमना,  थापों पर, नहीं करना श्रृंगार। नए-नए अलबेले मधुर रस भरे , मधुरों का, नहीं करना सेवन,  नहीं मनाना त्यौहार।  पर आंखों की कोरों में,  दो आंसू भी भर लेना,  उन नैनों की खातिर,  जिनका आंगन है वीराना,  जिनका अपना लुटा है इस साल। हर साल उमंगे मनाते हुए , एक बार यह भी दोहराना,  यह नेमत है हमको प्रभु की , जो हम मना रहे त्यौहार।

प्राणों से प्यारी

हे नयन के प्रीत निष्ठुर, पीड़ देकर उम्र भर का, जा रहे हो नीर भरकर,  क्या करूं तुम पर भरोसा , लौट आओगे अभी , तुम हो छलिया,  फिर से छल जाओगे कभी,  अब भरोसा किस पर करें,  जो प्रभु ही छोड़ दे,  मझधार में नैया लगाकर,  पार क्या करोगे कभी,  प्रीत से निष्ठुर पिया जी,  पीड़ ना जग में हुआ जी,  जो छोड़ के जाते समय भी,  कहता रहे वह है मेरा जी,  यह भरम दुख दे भले ही,  पर विरह की पीड़ हरि जी,  है हमें प्राणों से प्यारी।

मां तुझे बुलाने को

शोर-शराबे ,गाजे-बाजे , एक रव चहूंओर है, क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है ? जगरातों की रातें हैं,  गरबे डांडिया की होर है, क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है?  मार हिलोरें नाच रहा जग , ढोल नगाड़ों का शोर है । क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है?  नौ दिन बीते चली गई तू,  अब कैसे दिन और भोर है,  क्या मां तुझ बिन भी चलता जग?  फिर क्यों केवल नौ दिन शोर है?  क्या मां तुझे बुलाने को,  यह भक्तों का जोर है?